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Sunday, September 11, 2022

शब्दबोध से शब्दत्व की ओर...........

सर्वप्रथम अपनी संस्कृति की समृद्ध परंपरा को भावप्राण से वंदन!

उसके मूल दर्शन-धर्म-कला-साहित्य-इतिहास को भावप्राण से वंदन!

अपने समस्त कवियों-मुनियों-ॠषियों-महर्षियों को भावप्राण से वंदन!

उनसे अनुसृत अनस्त लय-ताल-छंद-धुन-ध्वनि को भावप्राण से वंदन!

उनसे नि:सृत देवभाषा-मौखिकभाषा-लिखितभाषा-मातृभाषा को भावप्राण से वंदन! 

                      

                                शब्दबोध से शब्दत्व की ओर अनवरत यात्रा के क्रम में, स्वाभाविक रूप से शब्दमीमांसा की जिज्ञासा होती है। शब्दों का अर्थ-गर्भ से उत्पत्ति, व्युत्पत्ति, यथोपयोग सदुपयोग, अर्थगत अर्थचिंतन, अन्तरभाव-प्रभाव आदि-आदि सदा से ही कौतूहल का प्रबल आकर्षण रहा है। सत्य है कि हमारे देश में भाषा के अस्तित्व का अन्तरतम स्पंदन सुना जाए तो प्रत्येक शब्द में ज्ञानियों-परा ज्ञानियों की ध्वनियाँ, ओंकार की भाँति प्रतिध्वनित होती हैं। स्फोट सामर्थ्य के आधार पर हर एक शब्द स्वयं में अर्थवान, समर्थवान और अनेकार्थवान है। साथ ही हर शब्द में गूढ़ से गूढोत्तर रहस्य उद्घाटित होता है। जिससे विपुल एवं विराट् भावों का भी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर प्रकटीकरण, वैभविक रूप में किया जाता है। जो हमारी मानवीय चेतना को निरंतर परिमार्जित एवं परिष्कृत करता है।

                    हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा में स्वभिव्यक्त भावगम्य भावग्राहिता ही जीवत्व को शिवत्व की ओर ले जाती है। यह स्वयं में एक ऐसी अनूठी बात है कि विश्व की अन्य भाषाओं को हमारी भाषा से ईर्ष्यालु होना पड़ता है। इसलिए हमारे काव्य की भाषा, तथ्यों-कथ्यों से परे, उन सत्यों को भी रूपायित-निरूपित करती रहती है जिन्हें हम प्रामाणिक रूप से, प्रत्यक्षतः देख-सुन नहीं पाते हैं। किन्तु हम उन्हें, अनंतर एक अलौकिक तल पर, हृदय से आत्मसात् करते रहते हैं। तदनंतर, हम समष्टिगत जीवन के परम सत्य को शाब्दिक अभिव्यक्ति देते हुए, एक व्यष्टि के रूप में भी स्व-वेद का जन्म दाता होते हैं।

                                             भाषिक मर्श जनित चिन्ताएँ कहती है कि इस आधुनिक युग में आवश्यकता से अधिक पढ़ा-लिखा समाज, भाषा की सांस्कृतिक अर्थ-व्यंजनाओं से निरंतर कटते हुए, केवल समष्टि गत उत्पादक-उपभोक्ता बनता जा रहा है। गंभीर परिमर्श कहती है कि नव सृजन में गौण होता हुआ व्यक्ति या व्यक्तित्व, साहित्य-सृजन के मूल उद्देश्य की स्थापना में असमर्थ होता जा रहा है। आदर्श विमर्श भी कहती है कि एक स्वस्थ एवं सहृदय समाज को उत्तरोत्तर ऊर्द्धवारोहण करने की साहित्यिक अवधारणा, अनेक वादों में उलझकर दिग्भ्रमित हो रही है। परन्तु एक सत्य यह भी है कि साहित्य का प्रत्येक अध्येता अथवा कृतिकार ही स्व-कृति का सर्वप्रथम, सर्वप्रमुख एवं सर्वप्रमथ परीक्षक होता है। वह स्व-विवेक आधारित स्व-मूल्यों की कसौटी पर ही साहित्य सृजन के मूल उद्देश्य को प्राप्त करता है। हम जानते हैं कि साहित्य कला का भी मूल उद्देश्य आनन्द के साथ हमारा आत्मीक उन्नयन ही है। अतः व्यवहृत भाषा का आलोचना-समालोचना भी साहित्य सृजनशीलता को सदैव नव प्रतिमानों से सुसंस्कृत ही करता है।

                                     वैसे इतिहास भी साक्षी है कि प्रत्येक कालखंड में भाषज्ञ रचनात्मक भाषा एवं सार्थक संप्रेषण पर, गंभीरता से चिन्तन-मनन करते आए हैं। ऐसी चिन्तन शीलता भी अभिव्यक्ति के अनेक आयाम को पुनर्व्यवस्थापित-पुनर्व्याख्यायित ही करती है। पर देखा जाए तो किसी गतिशील समाज में यथार्थ संप्रेषण के लिए, भाषा की चिन्तन शक्ति भी सामानुपातिक रूप से बदलती रहती है। ऐसा बदलाव वर्तमान की स्थिति को अधिक सहनीय बनाने के साथ ही आधुनिक तनावों को कम करने में सक्रिय भूमिका भी निभाता है। चाहे उसका चुकाया हुआ मूल्य, शब्दों की प्रामाणिक संप्रेषण क्षमता का क्षरण अथवा प्रदूषण ही क्यों न हो। लेकिन किसी भी भाषा का विविध रूप में उपयोग किए बिना सामाजिक भी तो नहीं हुआ जा सकता है। साथ ही सामाजिक हुए बिना मानव भी तो नहीं हुआ जा सकता है। उसी मानवता के परिप्रेक्ष्य में भाषा के अस्तित्व को विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित करते हुए एक सम दृष्टिकोण से निर्मल और निर्भय संवाद किया जा सकता है। 

                                     अनेकानेक संवाद-परिसंवाद के मध्य ही हम अपनी सृजनशीलता में भाषा की आत्मा को सर्वोपरि रखकर, संपूर्ण मौलिक जगत से एक अटूट संबंध बनाते हुए स्वयंसिद्ध हो सकते हैं। शब्दबोध से शब्दत्व तक पहुँचने का केवल यही एक मार्ग है।

                                     

                             ***हार्दिक शुभकामनाएँ***   

21 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 13 सितम्बर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. शब्दबोध से शब्द तत्व की गहन मीमांसा करता आपका लेख भाषा के समग्रतापूर्वक विकास यात्रा के साथ मानव को मानव से जोड़ने से जोड़ने की संकल्पना का उल्लेख करता है । आपके लेख को पढ़ने के बाद अपना कुछ लिखा आपके लेख को समर्पित है -
    धर्म, संस्कृति, आचार-विचार 'शब्द', सब की शक्ति है ।
    मानव सभ्यता इतिहास की शब्द' बड़ी अभिव्यक्ति है ।।
    हिन्दी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ ।

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  3. शब्द बोध से शब्दत्व तक पहुँचना अर्थात शब्द से शब्द के सार को ग्रहण करना, इसके लिए आपने इस सार गर्भित, शोध परक ललित आलेख में जो भी मार्ग सुझाये हैं, अतुलनीय हैं. भाषा के महत्व को समझकर ही हम भाषा का सही उपयोग करते हैं और व्यष्टि व समष्टि दोनों के मध्य एक सेतु का निर्माण भी. हिंदी दिवस के स्वागत में लिखे इस आलेख के लिए बधाई !

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  4. एक विमर्श के लिए उद्वेलित करता विचापरक लेख।डर लग रहा है कि कहीं मेरी टिप्पणी मूल लेख से लंबी न हो जाय। फ़िलहाल इतना कहकर संतोष कर लेते हैं कि प्रत्येक भाषा का अपना शब्द संसार है। शब्दों की आत्मा भाव, ध्वनि, उच्चारण, मनन, चिंतन संस्कृति, अध्यात्म, पर्यावरण, क्षेत्र की प्राकृतिक बनावट और बुनावट, समसामयिक परिवेश, जीवन-दर्शन और प्रणाली जैसे अगणित तत्वों के पारस्परिक स्पंदन से परा, पश्यंती, मध्यमा की कलाओं से गुजरती हुई बैखरी में व्यक्त होती है। प्रोटो यूरोपियन आर्य भाषा परिवार के तो सारे शब्द आपस में ऐसे गुँथे है कि वे भौगोलिकता को भी लाँघ जाते हैं। आपके द्वारा प्रयुक्त शब्द 'मर्श' भी फ़ारसी की गोद से ही निकला है।
    बहुत सुंदर लेख की हार्दिक बधाई!!! हिंदी मास की शुभकामनाएँ!!!

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    1. यदि टिप्पणी मूल लेख से लंबी और गहरी होती तो साहित्य रसिकों का आनन्द वर्धन ही होता। साथ ही ज्ञान वर्धन भी हो जाता। संभवतः तनिक संतुष्टि भी मिल जाती।

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  5. माननीय, इस लेख का विनीत आग्रह केवल हमारी भाषा में व्यवहृत शब्दगत अर्थबोध से है, देशज-विदेशज शब्दों को समादृत करते हुए। वैसे कोई भी भाषा जब अन्य भाषाओं के प्रति उदार और स्वीकार भाव में होती है तो उसकी सम्प्रेषणीयता व्यापकतर होती है। एक विनम्र स्वीकृति कि इस लेख का लेखक भाषज्ञ तो नहीं है, किन्तु उसके देखे मर्श शब्द संस्कृत है। जिसका अर्थ गंभीर विचार होता है।

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    1. मर्श
      marsh•مَرش
      स्रोत: अरबी

      वज़्न : 21

      टैग्ज़: चिकित्सा

      मर्श के हिंदी अर्थ
      छुपाइए
      संज्ञा, पुल्लिंग

      नाख़ुन से खरोंचना या छीलना, कुरेदना, उंगली के सिरे से घिसना

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    2. हिन्दी में मर्श का क्या अर्थ होता है?
      definition हिन्दीशब्दकोश में मर्श की परिभाषा
      मर्श संज्ञा पुं० [सं०] १. गंभीर विचार । २. राय । संमति । ३. नस्य । सुँघनी [को०] ।

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    3. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, लेखक- वामन शिवराम आप्टे
      पृष्ठ संख्या -७८०
      शब्द -मर्शनम्
      अर्थ - विचारणा, संयन्त्रणा, परीक्षण आदि

      राजपाल हिन्दी शब्दकोश, लेखक- डॉ० हरदेव बाहरी
      पृष्ठ संख्या - ६४०
      शब्द - मर्शन
      अर्थ - विचार करना, सलाह देना, रगड़ना

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  6. यहाँ तो बहुत गंभीर विमर्श चल रहा । एक बात अच्छी तरह समझ आ गयी कि हमारी भाषा से दूसरों को ईर्ष्या हो सकती है । सच तो ये है कि आज हिंदी भाषा ने न जाने कितनी भाषाओं के शब्दों को अपने में समाहित किया हुआ है । ऋचाओं और वेदों की भाषा से परे ये आम लोगों की समझ में आने वाली भाषा काल खंड के हिसाब से बदलती रही है । आज का समय भी अपने हिसाब से इसके स्वरूप को बदल ही रहा है ।
    इससे ज्यादा हमारी अक्ल काम न कर रही 😄😄😄
    समसामयिक गहन चिंतन माँगता लेख ।

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    2. इस लिंक को देखें
      https://vishwamohanuwaach.blogspot.com/2020/11/blog-post_26.html?m=1

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  7. भाव व विचारों की गहनता लिए सराहनीय सृजन।
    हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

    बड़े दिनों से आँखें ढूंढ रही थी आपको
    आहट सुनने को बेताब थी धड़कने
    ऐसे ओझल न हुआ करो
    कभी कभार ही सही आते जाते रहा करो।

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  8. बहुत सुन्दर विमर्श के साथ एक सार्थक और बौद्धिक निबंध पढकर अच्छा लगा प्रिय अमृता जी।मुझे लगता है कि शब्द बोध एक सांसारिक क्रिया है तो शब्दत्व एक नितांत आध्यात्मिक अनुभूति।अनुभूतियों की अन्तर्यात्रा ही सृजन का मूल है।और रही काव्यभाषा के विस्तार की बात तो यही सत्य है कि काव्य ने इन्सान के अनगिन अनकहे भावों को एक हृदय से अनेक हृदयों तक पहुँचाया है।कहन की अनगिन धाराओं के अविरल प्रवाह के रूप में बहती भाषा नूतन शब्दावली से खुद को सजाती निरंतर उत्कर्ष के शिखर की ओर अग्रसर है।सुन्दर मीमान्सात्मक लेख और हिन्दी दिवस के लिए बधाई और शुभकामनाएं आपको।🙏🌺🌺

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  9. हिंदी भाषा को समृद्ध करता बहुत ही गहन और चिंतनपरक आलेख । आपका लेख तो अद्भुत है ही ,प्रतिक्रिया ने भी हिंदी के विमर्श को बढ़ाया, जहां इतना समग्र चिंतन होगा ।वहां हिंदी जरूर समृद्ध होगी ।बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकारें अमृता जी ।

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  10. शब्दबोध से शब्दत्व की यात्रा पर आपके विचार प्रभावशाली लगे, सही कहा आपने हमें भाषा में भी महावीर के अनेकांत वाद को आधार बनाना होगा तभी आपके विचार ----
    " अनेकानेक संवाद-परिसंवाद के मध्य ही हम अपनी सृजनशीलता में भाषा की आत्मा को सर्वोपरि रखकर, संपूर्ण मौलिक जगत से एक अटूट संबंध बनाते हुए स्वयंसिद्ध हो सकते हैं। शब्दबोध से शब्दत्व तक पहुँचने का केवल यही एक मार्ग है।"
    --सार्थकता की कसौटी पर स्थित हो पाएंगे।
    एक श्र्लाघनीय आलेख,भाषाविज्ञ,
    गहन विचारोत्तेजक।
    अनंत साधुवाद ‌।

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  11. बहुत ही सुंदर और बौद्धिक सृजन

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  12. बहुत ही ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति

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  13. मेरी सीमित दृष्टि कहती है- भाव प्रमुख हैं। वह भी प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक भाव। दैनिक जीवन और समाज, भाषा के लिये रासायनिक खादों के समान हैं। भाषायी उत्कृष्टता के लिये सज्जनताकारी भाव, आध्यात्मिक व प्राकृतिक संवेदनायें ही अनिवार्य होंगी।

    नमस्कार जी कैसे हैं। आशा है स्वस्थ होंगे।

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