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Thursday, March 10, 2022

मंज़ूर-ए-हमारा होगा ! ........

हाँ! हम समंदर हैं

अपने खारेपन से ही खुश

ज्वार और सुनामी को इशारों पर नचाती हुईं

प्रचंड और विनाशकारी भी

गहराई में गंभीर, शांत और स्थिर

पर हम नहीं चाहतीं कि हममें कोई लहरें उठे

कोई भी भँवर बने तुम्हारे मनबहलाव के 

फेंके गए फालतू कचरों से ...........

हम नहीं चाहतीं कि

हमसे मुठभेड़ करती तुम्हारी मनमर्जियाँ

हमारी बाध्यता हो चाहना के उलट

पलट कर तुम्हें देखने की .......

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारे दिये गये

कागजी फूलों से बास मारती हुई

बेरूखी की महक हमारे बदन को 

और बदबूदार बनाए ..........

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारे सोने मढ़े दाँतो के भीतर 

कुलबुलाते कीड़ों को

चुपचाप अनदेखा कर

तुम्हें खुश करने के लिए

अपनी बदनसीबी पर भी मोतियों-सी हँसी 

तुम्हें ही दिखाएँ ..........

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारी तय की गई रणनीतियों के तहत

खुद से ही लड़तीं रहें घिनौनी लड़ाइयाँ

अपनी ही इच्छाओं और सपनों को मारते हुए

ताकि तुम मनमानी कर जीत का कराहत जश्न

हमारे ही तार-तार हुए वजूद पर मना सको .......

हम नहीं चाहतीं कि

हमारी रूह फ़ना होती रहे धोखों व फ़रेबों वाली

तुम्हारी मोहब्बत पर मोहताज हो कर

और तुम हमारा मज़लूमियत का मजे ले कर

मजाक उड़ाओ हमारी ही बेवकूफियों का ......

बस! अब बहुत हो चुका

बंद करो! वो सबकुछ जो तुम 

हमारी फ़िदाई का फ़ायदा उठाते हुए

हमपर ही ज़ुल्म करते आए हो सदियों से ......

अब सब गंदा खेल बंद करो!

जो तुम खेलते आए हो हमारे साथ

युगों-युगों से तरह-तरह से

जो हम नहीं चाहतीं 

हमसे जबरन वो सब करवा कर

हमें डरा कर, बहला-फुसलाकर

और हमारी ही प्रतिकृतियों को

हमारे ही अंदर मरवा कर ..........

अब तो समझ जाओ!

तुम्हारे उकसाने पर जितनी लड़ाइयाँ

हम खुद से ही लड़ते आए हैं

वो तुमसे भी लड़ सकते हैं

गुलामी की जंजीरों में बाँधकर जो

तिल-तिल कर ऐसे मारते हो हमें

तो हम खुद ही तुम्हें मारकर

अपनी मर्जी से मर सकतें हैं ..........

हाँ! जब खुशी से सबकुछ हार कर

हम तुम्हारे लिए कुछ भी कर के

हर हाल में खुश रह सकते हैं 

सोचो! जो तुम्हें ही हराने लगे 

तुम्हें तुम्हारी ही औकात बताने लगे

हम क्या हैं और क्या हो सकतीं हैं

तुम्हारे ही छाती पर पाँव रख समझाने लगें

और प्रलयकारी तांडव से सृष्टि को कँपाने लगें

तो तुम सोच भी नहीं सकते कि क्या होगा ........

इसलिए याद रखो!

तुम्हारा ही वजूद बस और बस हमसे है

हमें कुछ मत कहना क्योंकि सच को

हम जानतें हैं कि हमारा भी होना तुमसे हैं

गर कभी सच को हम इनकार कर दें

व इनकार कर दें अपने अंदर तुम्हें रखने से

फिर हम भी किसी कीमत पर

तुम्हारी तरह ही न बदलें

तुम्हारे ही लाख रोने, गाने और चखने से

तो हमारा जो है सो है

पर तुम्हारा क्या होगा?

हमसे बेहतर तो तुम्हें पता होना चाहिए 

कि हमारे इनकार से क्या होगा

गर नहीं पता है तो 

अब हम तुम्हें अगाह करते हैं

और तुम्हारे कानों में चिल्लाते हुए

चेतावनी देकर जोर-जोर से कहते हैं 

कि अब सच में तुम बदल जाओ!

समय रहते ही सँभल जाओ!

वर्ना वजूद की आखिरी लड़ाई होगी तो 

हमारा किया भी वो सबकुछ जायज होगा

जो हमनें तुम पर रहम कर किया नहीं है

फिर मत कहना कि हमनें तुम्हें कहा नहीं है

इसलिए फिर से हम तुम्हें कह रहें हैं

सुन लो! अबतक हमारा अंजाम तय करने वाले

रूक जाओ! हमारी जान पर ही जीने वाले

नहीं तो अब से तुम्हारा भी अंजाम वही होगा

जो मंज़ूर-ए-हमारा होगा।

17 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (११ -०३ -२०२२ ) को
    'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन'(चर्चा अंक-४३६६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ मार्च २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. आपकी रचना पढ़ते हुए स्त्री के शक्तिस्वरुप के सम्मान में एक श्लोक स्मरण हो आया
    “या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।”

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  4. सारी मीठी नदियां खुद ही खुशी से खारे समुन्दर में जा कर मिल जाती हैं। जरूरी है समुन्दर। सुन्दर सृजन हमेशा की तरह।

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  5. बहुत हो गया.. मन का चीत्कार अब तो समझो..
    सारगर्भित सृजन ।

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  6. वाह बहुत खूब
    यलगार उन सबके लिए जो भी हो.. बाधक हो

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  7. वाह! युद्द्ध का बिगुल बज गया है अब तो आर पार की लड़ाई ही शेष रह गयी है, शक्ति को संयत करने के लिए फिर शिव को राह में बिछना होगा वरना प्रलय से कोई नहीं बच सकता

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  8. वाह ! कबीर की बानी याद आ गयी !
    'माटी कहे कुम्हार तें, तू क्या रौंदे मोय,
    इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय !'

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  9. हमें कुछ मत कहना क्योंकि सच को

    हम जानतें हैं कि हमारा भी होना तुमसे हैं..
    बहुत खूब।

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  10. सब आगा पीछा ,दर्पण दर्शन।
    शानदार सृजन।

    शोणित नाश करें कंसों का
    धारण कर वो अम्बा रूप
    जाग उठी है जो थी निर्बल
    तोड़ चुकी वो गहरे कूप
    बोझ उठाती धरती जैसे
    और किसी पर कब वो भार।।

    अभिनव जागरण।

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  11. नहीं तो अब से तुम्हारा भी अंजाम वही होगा

    जो मंज़ूर-ए-हमारा होगा।
    बस सम्भलना ही होगा नारी शक्ति के प्रकोप से अब स्वयं शिव भी नहीं बचा पायेंगे ।क्योंकि अब तुम्हारे फरेब समझ चुकी है नारी।
    बहुत ही जबरदस्त,प्रेरक एवं लाजवाब सृजन

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  12. नारी शक्ति पर बहुत ही सुंदर और प्रेरक सृजन, अमृता दी।

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  13. अब बहुत हुआ
    सीख लो आत्मरक्षा बेटियों
    तुम त्रिशूल की धार हो जाओ
    अवतार धर कर शक्ति का
    असुरों पर खड्ग का प्रहार हो जाओ
    छूकर तुझको भस्म हो जाये
    धधकती ज्वाला,अचूक वार हो जाओ
    ------
    शाक्त रस बेहद गंभीर और ओजपूर्ण है।

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  14. हम नहीं चाहतीं कि
    तुम्हारी तय की गई रणनीतियों के तहत
    खुद से ही लड़तीं रहें घिनौनी लड़ाइयाँ....
    अमृताजी,हम स्त्रियों में हिम्मत की बहुत कमी है आज भी। हम सोचती तो बहुत हैं कि ये कर दूँगी, वो कर दूँगी, परंतु वास्तव में अपनी शक्तियों को पहचानकर उसका अपने खुद के विकास के लिए उपयोग करनेवाली स्त्रियाँ आज भी बहुत कम है। हम मधुमक्खियों की तरह हैं जो अपार श्रम से मधु इकट्ठा करती हैं और उसका उपयोग करते हैं दूसरे।
    हम अपनी शक्ति और प्रतिभा का उपयोग अपने लिए करना कब सीखेंगी पता नहीं। स्त्री की आत्मा को झकझोरकर जगानेवाली, उसे उसकी ताकत का बोध करानेवाली ओजस्वी कविता के लिए साधुवाद।

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  15. महिलाओं को ऊर्जावान करने के लिए सशक्त रचना ।
    हम स्त्रियाँ अक्सर स्वयं से ही हार जाती हैं , और इसी का लाभ अन्य उठा लेते हैं।।
    ओजपूर्ण रचना ।

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  16. आपकी रचनाओं में ये रस कम ही दिखता है; अतः असहज लगा. ईश्वर ऐसी परिस्थिति न ही उत्पन्न करे!

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