मत करो विवश
कहने को
झिझक की कँटीली राह की
लड़खड़ाती हुई कहानी
गहरे अँधियारे को चीर कर
अतल तक डुबाती है
स्मृतियाँ नई - पुरानी ......
मत जगाओ
हृदय में सुप्त है
व्यग्र , व्यथातुर व्याकुलता
विषम संघर्ष है
है बूझहीन
अनायत आतुरता ......
मत बतलाओ
तुमसे ही
कल्पित , अकल्पित जो सुख मिला
मेरे जीवन की
सहज ही
विकसित हुई हर कला .....
मत दोहराओ
मधुमय अधरों से
बहती रही जो मधुर धारा
मिलन के अमर क्षणों का
वो सुहावना गीत प्यारा .....
अब अपने
इसतरह होने का
क्या आशय बताऊँ
या क्षितिज पर
अटकी साँसों का
केवल संशय सुनाऊँ .....
न जाने
जीवन ही
क्यूँ इसतरह मौन है
और सन्नाटे के
टूटे छंदो को
सुनता कौन है ?
व्यर्थ की दुष्कल्पनाओं से
अनमनी हूँ मैं
मत झझकोरो मुझे
अपनी ही चुप्पी से
कनकनी हूँ मैं .....
जानती हूँ मैं
मेरा ये निष्ठुर व्यवहार है
क्या तुम्हें
ये अति स्वीकार है ?
तुम तक
जो न पहुँचे
कुछ ऐसी ये पुकार है
भूल मेरी है
ये प्रतिकूल प्रतिकार है ....
मत करो विवश
कहने को
इस चुप्पी की
विरव कहानी
नहीं कहना मुझे
कि कैसे सोखे रखा है
मैंने अपने ही
समंदर का सारा पानी .
कहने को
झिझक की कँटीली राह की
लड़खड़ाती हुई कहानी
गहरे अँधियारे को चीर कर
अतल तक डुबाती है
स्मृतियाँ नई - पुरानी ......
मत जगाओ
हृदय में सुप्त है
व्यग्र , व्यथातुर व्याकुलता
विषम संघर्ष है
है बूझहीन
अनायत आतुरता ......
मत बतलाओ
तुमसे ही
कल्पित , अकल्पित जो सुख मिला
मेरे जीवन की
सहज ही
विकसित हुई हर कला .....
मत दोहराओ
मधुमय अधरों से
बहती रही जो मधुर धारा
मिलन के अमर क्षणों का
वो सुहावना गीत प्यारा .....
अब अपने
इसतरह होने का
क्या आशय बताऊँ
या क्षितिज पर
अटकी साँसों का
केवल संशय सुनाऊँ .....
न जाने
जीवन ही
क्यूँ इसतरह मौन है
और सन्नाटे के
टूटे छंदो को
सुनता कौन है ?
व्यर्थ की दुष्कल्पनाओं से
अनमनी हूँ मैं
मत झझकोरो मुझे
अपनी ही चुप्पी से
कनकनी हूँ मैं .....
जानती हूँ मैं
मेरा ये निष्ठुर व्यवहार है
क्या तुम्हें
ये अति स्वीकार है ?
तुम तक
जो न पहुँचे
कुछ ऐसी ये पुकार है
भूल मेरी है
ये प्रतिकूल प्रतिकार है ....
मत करो विवश
कहने को
इस चुप्पी की
विरव कहानी
नहीं कहना मुझे
कि कैसे सोखे रखा है
मैंने अपने ही
समंदर का सारा पानी .
वास्तव में गहन वेदना है! आह! इससे गुजरते हुए कोई सहारा मिल जाता......
ReplyDeleteअंदर की विवशता को बहार छलकने के लिए कोई विवश क्यों करें.
ReplyDeleteकिसी कुलबुलाते छाले को कुरेदने जैसा है.
उम्दा रचना.
पधारें- अंदाजे-बयाँ कोई और
सदा की तरह अद्धभुत भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteस्वागत है, एक लम्बे अन्तराल के बाद आपको पढ़ा..हृदय की गहराई से निकली कोई पुकार हो जैसे..
ReplyDeleteनहीं कहना मुझे
ReplyDeleteकि कैसे सोखे रखा है
मैंने अपने ही
समंदर का सारा पानी ..
अद्भुत.. अप्रतिम.. न कह कर बहुत कुछ कह दिया ..अभिभूत हूँ इतना बेहतरीन लेखन पढ़ कर ।
विरवता को कैसे थामा है विकल विचल मन ने, जैसे स्वयं में खार समेट ली हो नीरव निश्चल, जिसे ना कुरेदो .... वाहह्ह्
ReplyDeleteअप्रतिम।
शानदार
ReplyDeleteलम्बा अंतराल। कहते रहो।
ReplyDeleteसंत हुई कविता आज पीड़ा से कराह रही है. रचनाधर्मिता सक्रिय है.
ReplyDeleteलम्बे अंतराल बाद ...
ReplyDeleteचलिए लिखना शुरू किया ... वही धार आज भी बरकरार है ...
इस समुन्दर का पानी जो रोके रक्खा है उसे बाहर आने देना ही अच्छा है ...
ये पीढ़ा शब्दों के बहाने ही सही ...
न जाने
ReplyDeleteजीवन ही
क्यूँ इसतरह मौन है
और सन्नाटे के
टूटे छंदो को
सुनता कौन है ?
भाव प्रबल अभिव्यक्ति .