रिक्तता की खाई में
पसरी हुई है
मौन की परिभाषा...
रुद्ध है समस्त
मनोधारा-मनोकांक्षा..
शनैः-शनैः
टूटता मनोबल...
टूटे मौन तो
मुखरित हो मनोवृति
और संप्रेषित करे
मनोवेग को
विचारों के रुखड़े-रूढ़ी से..
जिससे रुषित शब्दों को
मिले पुनर्जीवन-पुनर्वचन...
अन्यथा
चिर-काल से
शिखर पर खड़ी
सृज्य-सृष्टि
अभिवयक्ति को कहीं
गर्भ में लिए
उसी खाई में न
छलांग लगा दे .
रुखड़े-रूढ़ी---खुरदरा चढ़ाई
रुषित---दुखित
सृज्य-सृष्टि---सृजन करने योग्य रचना
पसरी हुई है
मौन की परिभाषा...
रुद्ध है समस्त
मनोधारा-मनोकांक्षा..
शनैः-शनैः
टूटता मनोबल...
टूटे मौन तो
मुखरित हो मनोवृति
और संप्रेषित करे
मनोवेग को
विचारों के रुखड़े-रूढ़ी से..
जिससे रुषित शब्दों को
मिले पुनर्जीवन-पुनर्वचन...
अन्यथा
चिर-काल से
शिखर पर खड़ी
सृज्य-सृष्टि
अभिवयक्ति को कहीं
गर्भ में लिए
उसी खाई में न
छलांग लगा दे .
रुखड़े-रूढ़ी---खुरदरा चढ़ाई
रुषित---दुखित
सृज्य-सृष्टि---सृजन करने योग्य रचना
एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब
ReplyDeleteबेहद् गहन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteरिक्तता की खाई में मौन की परिभाषा बड़ी गूढ़ होती है ...
ReplyDeleteचिर-काल से
ReplyDeleteशिखर पर खड़ी
सृज्य-सृष्टि
अभिवयक्ति को कहीं
गर्भ में लिए
उसी खाई में न
छलांग लगा दे .
बहुत सुंदर ......... गहन अभिव्यक्ति.....
एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
ReplyDeleteमौन,मनोधारा,मनोकांक्षा,मनोबल,मनोवृति आदि शब्दों से ही मन का अनुसंधान ही कर डाला है आपने.
ReplyDeleteकुछ शब्द तो मेरी समझ नहीं आ रहें हीं जैसे रुखड़े-रूडी , रुषित.लगता है बहुत 'तन्मय' होकर ही आपने यह अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने,व सुविचारों की आनंद वृष्टि करने के लिए बहुत बहुत आभार.
riktata ke ehsaas ka dard in sbdon me chalak aaya hai. isse ubarne ki chatpatahat hame nirarthakta se vimukh karke saarthakta ki taraf dhakelati hai. jahan se ham pa sake sbadon me unke arth aur jivan me iske mayane........very nice.
ReplyDeletebhut hi acchi aur bhaavpur racnha...
ReplyDeleteरिक्तता की खाई में
ReplyDeleteपसरी हुई है
मौन की परिभाषा...
बहुत सुन्दर!
टुटा मौन और सृजय-सृष्टि कितने सुंदर तरह से बाहर आई है ......!!
ReplyDeleteगहन ..अति खूबसूरत रचना ...!!
विचारों की गहन अभिव्यक्ति ,बधाई... मगर कुछ शब्द समझ से परे..
ReplyDeleteसच है, रिश्तों की खाई पाटना सरल नहीं॥
ReplyDeleteये जो मौन है वह सबसे बड़ा दुश्मन है। दो मनों को मिलने ही नहीं देता।
ReplyDeleteमौन की मनोवृत्ति अद्दभुत ही होती है.
ReplyDeleteअभिव्यक्ति को शब्द मिलें, विचार मुखरित हों, यही तो चाहता है कवि मन।
ReplyDelete..कवि मन की बात सुंदर ढंग से ऱख दिया आपने।
अद्भुत कविता के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएं मेरे ब्लॉग पर कव्या के प्रेम विशेषांक की समीक्षा है समय हो तो एक नजर इस अद्भुत विशेषांक पर डालियेगा |आभार
ReplyDeleteसुन्दर/सार्थक अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसुन्दर.......शानदार......ब्लॉग का नया स्वरुप कुछ खास नहीं लगा......रंग बहुत हल्का हो गया है......पढने में आँखों को लगता है....पहले वाला बेहतर था |
ReplyDeleteहर मौन सार्थक हो यह जरूरी नहीं लेकिन मौन के बाद लिखी आपकी यह सुंदर कविता सिखाती है कि लिखने से पहले कलम चुप हो जाये !
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक दार्शनिक और जीवन की गहरी अनुभूति को लिए हुई कविता .. मौन की बात बहुत अच्छी तरह से आपने दर्शाया है ..
ReplyDeleteअमृता , बहुत ही दार्शनिक होती हैं आपकी अभिव्यक्तियाँ।मौन की परिभाषा मन की वेदना को अन्तः सलिला होती है...मनोवेग का सम्प्रेषण विचारों के कंपन का लेख है...हम जब भी अपनी वेदना को स्वर देना चाहते हैं तो हमारे शब्द मन के भीतर ही घुट से जाते हैं...
ReplyDeleteआपकी कविता मौन को सहज रूप से वेगवती बना सृजन करने योग्य बना देती है...हार्दिक बधाई ऐसी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए और ऐसी सटीक रचना के लिए॥
अमृता जी,
ReplyDeleteमन तो एक ही होता है,दस बीस तो नही। आपने अपने मन को जो विस्तृत आयाम दिया है उसके लिए अभी मेरे पास कोई विशेषण नही है। मन की सुंदर अभिव्यक्ति को उद्भभाषित करती यह रचना न चाहते हुए भी बहुत कुछ कह गयी। हमारे पोस्ट पर भी नजरें इनायत रखें। धन्यवाद।
मौनं श्रेयस्करं से आगे भी जहाँ है . हर खंदक को पाट लेंगे .
ReplyDeleteअमृता जी, हमारा सौभाग्य कि आप हमारे ब्लॉग पर आये...उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे आपके बेहतरीन ब्लॉग का सुराग मिला. पुरानी भी कई कवितायेँ पढ़ डाली...सब एक से बढ़कर एक. ताज़ा कविता की अन्तिम छह पंक्तिया बेहद प्रभावी लगी !
ReplyDeleteगुम्फित विचारों की पुनर्नवा काव्य ऋचा -
ReplyDeleteजिसमें नीरव रिक्तता ,अवकाश की विकल अकुलाहट है किन्तु
नए सृजन की आस भी ....सच न ?
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
ReplyDeleteमौन को विश्लेषित करती प्रशंसनीय कविता।
ReplyDeleteबढ़िया शब्द चयन और अर्थ बताने का भी शुक्रिया...भावों को समेटते हुए एक कमाल की कविता लिखी है आपने.. बहुत बहुत बधाई..शुभकामना
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति. मौन को परिभाषित करते सुंदर शब्द प्रयोग कविता को और भी सुंदर बनाते हैं. शुभकामनाएँ
ReplyDeleteमौन को प्रेषित करना इतना आसान नही होता ... कभी कभी मौन सच में खाई बन जाता है ...
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कविता लिखती हैं आप... मौन कई बार काफी मुखर होता है , कई बार अंतर्मुखी भी होता है... शुभकामना सहित..
ReplyDeleteबढ़िया शब्द सामर्थ्य ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
दार्शनिकता की सम्पूर्ण झलक है इस रचना में।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteमौन और व्यक्त दो पहलु हैं रिश्तों के सिक्कों के.. कहीं मौन और कहीं व्यक्त काम आता है.. और कौन सा कब काम आये यह तो हमें ही समझना होगा...
ReplyDeleteटूटे मौन तो मुखरित हो मनोवृत्ति
ReplyDeleteसच में मौन का टूटना जरुरी है सब कुछ दबा न रह जाये जो की शालता रहे छुपा रहे बेकार हो जाये
बहुत सुन्दर भाव भरी रचना -बधाई हो
गहन अहसास...बहुत सुन्दर भावमयी प्रस्तुति..
ReplyDeleteसृजय-सृष्टि ,मौन की परिभाषा, अति खूबसूरत रचना
ReplyDeleteभाषा ज्ञान को भी पंख लगा रही है आपकी रचना .हमारा शब्द कोष संवर्धित हुआ ,आपकी प्रखर ओजपूर्ण रचना को पढ़कर .
ReplyDeleteदिल से लिखी हुई रचना सीधे दिल में उतरती है। आभार।
ReplyDeletebahut adhbut hai aapki srijan kshamta.kavi hrudya maun hote hue bhee bahut sundar srijan kiya hai aapne.yah nirasha to kshan bhangur hai.fir nayee komplein ugne lagengee.srujya srishti fir se paidaa karegee naye batvriksh.
ReplyDeleteaapki kalam ko salaam.
muaaf karein aaj hindi mein type na kar saka.
बहुत ही दार्शनिक अभिव्यक्ति है आपकी लाजबाब
ReplyDeleteआप मेरे पोस्ट पे आयीं आपका आभार किन्तु सिर्फ एक ही शब्द ये प्रतीक्षा.. क्या होता है समझ में नहीं आया
जटिल अहसास को व्यक्त करती रचना बहुत अच्छा बन पड़ी है.
ReplyDeleteअम्रता जी---सुन्दर भाव पूर्ण कविता निश्चय ही शास्त्रीय है ---शब्द-चयन, प्रतीकात्मक अर्थ सौदर्य युक्त हैं---परन्तु क्लिष्टता काव्य सौन्दर्य को नष्ट करती है... परन्तु ध्यान दें...
ReplyDelete---मैं यह कहे बिना नहीं रह पा रहा हूं कि इतने शब्द-गाम्भीर्य , क्लिष्टता के कारण ही कविता जन मानस से दूर हुई है....यदि वह स्पष्ट सामान्य शब्दों में सभी के समझने योग्य नहीं तो उसकी क्या सामाजिक उपयोगिता है ?
--शब्द-सौन्दर्य की अपेक्षा भाव व अर्थ सौन्दर्य को वरीयता होनी चाहिये---सूर, तुलसी, मीरा आदि व अन्य महान कवियों के महान कव्यों में मैने कभी क्लिश्ट शब्दों का चयन नहीं पाया...जबकि वे सन्सार की सर्वश्रेस्ष्ठ रचनायें है....
---आशा है अन्यथा न लिया जायगा...
स्पष्टीकरण के लिए आपका धन्यवाद!!
ReplyDeleteनिशब्द करने वाली रचना...अद्भुत अविस्मरणीय...बहुत दिनों बाद गम्भीर लेखन पढने को मिला सो बधाई।
ReplyDeleteडॉ.अजीत
इस खाई से तो बचने में ही भलाई है
ReplyDelete