तुम मूर्तिकार
गीली मिट्टी मैं
अपनी अतृप्त
इक्षाओं के ढांचें पर
लगाकर मुझे
बनाते हो
खुबसूरत मूर्ति
सपना कल्पना व
वासनाओं से
सजाते हो मुझे
सम्पूर्ण कुशलता का
उपयोग कर
स्वांग रचते हो
मुझमें प्राण भरने का
मैं जानती हूँ
मेरी पूजा भी करोगे
सबके साथ तुम
उत्सव भी मनाओगे
फिर मैं विसर्जित
कर दी जाऊँगी किसी
गन्दी नाली नदियों में
मैं मृणमूर्ति पुनः
मृणमय हो जाऊँगी
और तुम्हारे हाथ
फिर गीली मिट्टी ही
रह जायेगा .
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 27-10 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ...
बेहतरीन कविता।
ReplyDeleteसादर
मैं आपके ब्लाग पे नइ पुरानी हलचल के माध्यम से पहली बार आया हूं दिल को छूने वाली ये रचना है...
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लाग पे भी पधारें आभार ...
सदस्य बन रहा हूं।
wah! bahut khoob....
ReplyDeletewww.poeticprakash.com
bahut hi badhiya post
ReplyDeleteमै थोड़ी देर आपकी जगह पर रहकर इन शब्दों को जीने की जुर्रत कर रहा हूँ ....
ReplyDeleteसारगर्भित .. शायद इसीलिए उस मूरत को ह्रदय में बिठाने का साधन करते हैं ... ताकि विसर्जन न करना पड़े .. और मन सना रहे उसी गीली मिटटी से .. उसकी सौंधी खुशबू से ..
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