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Monday, January 1, 2018

यदि मैं भी कभी गुनगुना दूँ .......

बड़ा सुख था वीणा में
पर उत्तेजना से
फिर पीड़ा हो गई ......
संगीत बड़ा ही मधुर था
सुंदर था , प्रीतिकर था
हाँ ! गूँगे का गुड़ था
पर आघात से
फिर पीड़ा हो गई .....
तार पर जब चोट पड़ी
कान पर झनकार था
शब्दों के नाद से
हृदय में मदभरा हाहाकार था
पर चोट से
फिर पीड़ा हो गई .......
अनाहत का संगीत
अब सुनाओ कोई
चोट , आघात से भी
अब बचाओ कोई .....
न उँगलियाँ हो , न ही कोई तार हो
न ही उत्तेजना का कोई भी उद्गार हो
उस नाद से बस एक ओंकार हो
शून्य का , मौन का वही गुंजार हो .....
अनंत काल तक जिसे मैं
सुनती रहूँ , सुनती रहूँ
यदि मैं भी कभी गुनगुना दूँ
तो तुम्हें भी
उसी झीना - झीना ओंकार में
अनंत काल तक मैं
बुनती रहूँ , बुनती रहूँ .

17 comments:

  1. सुन्दर । नववर्ष मंगलमय हो।

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  2. उत्कृष्ट व प्रशंसनीय प्रस्तुति........
    नववर्ष 2018 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!

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  3. बहुत सुंदर रचना अमृता जी..लाज़वाब👌

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  4. मौन की गुंजार अन्य को भी बुन सकती है, यह बात तो सही है. अपकी कविता में अनहद का स्वर सुनाई दे रहा है.

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  5. आहत विहीन ही है । इसलिए तो यह अनाहत कहलाता है।अनवरत यह ही है।कारणविहीन ।प्रयास विहीन सतत प्रतीक्षा है।जब जब प्रेम का अस्फुरण, मोह नही,तो ही सौरभ बिखरता है।अपने लिए नही।किसी के लिए भी नही। फूलों की तरह । जबतक है जिसने खिलाया है,उसी अस्तित्व के प्रेम का समर्पण।

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  6. खूबसूरत अभिव्यक्ति ,
    मंगलकामनाएं आपको !

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  11. सार्थ, सुंदर अभिव्यक्ति

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  12. निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

    अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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