हे मधुरी, हे महामधु, हे मधुतर
तू सबका त्राण कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
मेरे पथ की सुपथा !
वाचालता मेरी नहीं है वृथा
असमर्थ स्तुति रखती हूँ यथा
तू मत लेना इसे अन्यथा
नत निवेदन है, आदान कर माँ !
प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, प्रसन्न हो
प्रतिपल प्रसन्नता प्रदान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
गदा, शूल, फरसा, वाण, मुदगर
तनिक तू इन सबको बगल में धर
और अपने अत्यंत हर्ष से
रोम- रोम को रोमांचित करके
अदग अभिलाषाओं का आधान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरा मुख मन्द मुस्कान से सुशोभित है
तू कमनीय कान्ति से कीलित है
तू मंगला है, शिवा है, स्वाहा है
तू ही अक्षय, अक्षर प्रणव- प्रकटा
प्रतिदेय प्रतिध्वान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरी ही निद्रा से खींचे हुए
पुण्यात्माओं का चित्त भी
तेरी महामाया में फँस जाता है
और दुरात्माओं का क्या कहना ?
उनका तो प्रत्येक कृत्य ही
पाप- पंक में धँस जाता है
क्षमा कर, क्षमा कर, क्षमा कर
सबको क्षमादान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
पुण्य घटा है, पाप बढ़ा है
तब तो तुझे क्रोध चढ़ा है
उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति
अपने मुख को लाल न कर
तू तनी हुई भौहों को
और अधिक विकराल न कर
तेरे भय से भयभीत हैं सब
सबको अभयदान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरे हृदय में कृपा
और क्रोध में निष्ठुरता
केवल तुझमें ही दोनों बातें हैं
इसलिए जगत का कण- कण मिलकर
क्षण- क्षण तेरी स्तुति गाते हैं
हे सुन्दरी, हे सौम्या, हे सौम्यतर
तनिक अपने सिंह से उतर कर
सबका कल्याण कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तू सबका त्राण कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
मेरे पथ की सुपथा !
वाचालता मेरी नहीं है वृथा
असमर्थ स्तुति रखती हूँ यथा
तू मत लेना इसे अन्यथा
नत निवेदन है, आदान कर माँ !
प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, प्रसन्न हो
प्रतिपल प्रसन्नता प्रदान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
गदा, शूल, फरसा, वाण, मुदगर
तनिक तू इन सबको बगल में धर
और अपने अत्यंत हर्ष से
रोम- रोम को रोमांचित करके
अदग अभिलाषाओं का आधान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरा मुख मन्द मुस्कान से सुशोभित है
तू कमनीय कान्ति से कीलित है
तू मंगला है, शिवा है, स्वाहा है
तू ही अक्षय, अक्षर प्रणव- प्रकटा
प्रतिदेय प्रतिध्वान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरी ही निद्रा से खींचे हुए
पुण्यात्माओं का चित्त भी
तेरी महामाया में फँस जाता है
और दुरात्माओं का क्या कहना ?
उनका तो प्रत्येक कृत्य ही
पाप- पंक में धँस जाता है
क्षमा कर, क्षमा कर, क्षमा कर
सबको क्षमादान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
पुण्य घटा है, पाप बढ़ा है
तब तो तुझे क्रोध चढ़ा है
उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति
अपने मुख को लाल न कर
तू तनी हुई भौहों को
और अधिक विकराल न कर
तेरे भय से भयभीत हैं सब
सबको अभयदान कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
तेरे हृदय में कृपा
और क्रोध में निष्ठुरता
केवल तुझमें ही दोनों बातें हैं
इसलिए जगत का कण- कण मिलकर
क्षण- क्षण तेरी स्तुति गाते हैं
हे सुन्दरी, हे सौम्या, हे सौम्यतर
तनिक अपने सिंह से उतर कर
सबका कल्याण कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !
‘‘माँ’’ से दुलार की आकांक्षा...... भावमयी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत खूब.
Deleteसबका कल्याण कर माँ ! ... लेखनी में दुर्गा की शक्ति
ReplyDeleteजगत का कण- कण मिलकर
ReplyDeleteक्षण- क्षण तेरी स्तुति गाते हैं................जय हो इस जय गान की। महादेवी कल्याण करें।
माँ प्रकृति की एक प्रक्रिया है जिसमें बहुत से सुंदर भाव आरोपित हैं. आपने उसके कई सुंदर भावों का आह्वान किया है. बहुत सुंदर तरीके से.
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-10-2016) के चर्चा मंच "मातृ-शक्ति की छाँव" (चर्चा अंक-2490) पर भी होगी!
ReplyDeleteशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सबका मंगल करें माँ!
ReplyDeleteमाँ के चरणों मिएँ नतमस्तक हो की करी गयी सुन्दर प्रार्थना ... भावपूर्ण स्तुति ...समर्पित हो जाने का आह्वान करती ....
ReplyDeleteमाता की कृपा सब पर समभाव रहती है. उनका ह्रदय अपरम्पार है, जैसे आपका...
ReplyDeleteamrita..sach kehun..hindi vidha mein nipun ho tum
ReplyDeletebht hi utkrisht lekhn .... shubhkamnayen !!!
ReplyDeleteWaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaah
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ReplyDeleteआपको दीप-पर्व की शुभकामनाएँ ।
Thnank for sharing such wonderful post
ReplyDeleteare you interested in book publishing
Publish a Books In India
वाह
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