रोआँ - रोआँ हुआ कवि
साँस - साँस कविता
अब तुझको कैसे मैं कहूँ ?
आखिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !
ये विवशता भी बड़ी निराली है
जिसको जी कर , जीती ये शिवाली है
चाहो तो , मौन से आखर महकाओ
या आखर को मूक बनाओ
ये समरसता तुझपर बलिहारी है !
बना कर अपनी पोगड़िया
ले लिया सब लकुटी - कमरिया
धड़कन के मँजीरा पर अब
नचाओ , मुझे खूब नचाओ
पहना अपनी धानी लहरिया !
चतुर हुई , निश्चिंत हुई मैं
ना डोलूँ अब , संत हुई मैं
संतो ! समझ सको तो समझ लो
मेरे अकिंचन आखर की विवशता
कह कर , ना कह कर भी अनंत हुई मैं !
संतों ! संत हुई मैं .
साँस - साँस कविता
अब तुझको कैसे मैं कहूँ ?
आखिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !
ये विवशता भी बड़ी निराली है
जिसको जी कर , जीती ये शिवाली है
चाहो तो , मौन से आखर महकाओ
या आखर को मूक बनाओ
ये समरसता तुझपर बलिहारी है !
बना कर अपनी पोगड़िया
ले लिया सब लकुटी - कमरिया
धड़कन के मँजीरा पर अब
नचाओ , मुझे खूब नचाओ
पहना अपनी धानी लहरिया !
चतुर हुई , निश्चिंत हुई मैं
ना डोलूँ अब , संत हुई मैं
संतो ! समझ सको तो समझ लो
मेरे अकिंचन आखर की विवशता
कह कर , ना कह कर भी अनंत हुई मैं !
संतों ! संत हुई मैं .
अनंत होना अच्छा है
ReplyDeleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३१ दिसम्बर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
नये साल कि ढेर सारी शुभकामनाऐ
ReplyDeleteरोआँ - रोआँ हुआ कवि
ReplyDeleteसाँस - साँस कविता
अब तुझको कैसे मैं कहूँ ?
आखिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !
बेहतरीन लेखन । सुन्दर रचना हेतु साधुवाद आदरणीय अमृता जी।
आपकी नई रचना का इन्तजार है।
ReplyDeleteआवश्यक सूचना :
ReplyDeleteअक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 15 फरवरी 2019 तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com
अधिक जानकारी हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जाएं !
https://www.akshayagaurav.com/p/e-patrika-january-march-2019.html
यह कविता पहले तो मौन से आखर को महकाती दिख रही है और फिर आखर को मौन बनाती है, नाचती है और संत हो जाती है. आखर की कोई विवशता नहीं होती. केवल अभिव्यक्ति होती है.
ReplyDeleteआपकी रचनाएँ दर्शन के क्षेत्र की हैं.
वाह! अनंत हुई मैं, संत हुई मैं....
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