जानती हूँ , इस प्राप्त वृहद युग में
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?
विराट वसंत है , विस्तीर्ण आकाश है
चारों ओर मलयज- सा मधुमास है
पर सीपी से स्वाति ही जैसे रूठ गई है
औ' आर्त विलाप से ही वीणा टूट गई है
सुमन- वृष्टि है , विस्मित- सी सृष्टि है
पर भविष्योन्मुख ही सधी ये दृष्टि है
आँखें मूंदे- मूंदे हर क्षण बीत जाता है
औ' स्वप्न जीवन से जैसे जीत जाता है
विद्रुप हँसी हँस लहलहाती है ये लघुता
कभी तो किसी कृपाण से कटे ये कृपणता
विकृत विधान है , असहाय स्वीकार है
छोटा- सा जीवन जैसे बहुत बड़ा भार है
बस व्यथा है , वेदना है , दुःख है , पीड़ा है
भ्रम है , भूल है , पछतावा है , पुनरावृत्ति है
स्खलन है , कुढ़न है , अटकाव है , दुराव है
अतिक्रामक निर्लज्जता से निरुपाय कृति है
मानती हूँ , इस प्राप्त वृहद युग में
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?
विराट वसंत है , विस्तीर्ण आकाश है
चारों ओर मलयज- सा मधुमास है
पर सीपी से स्वाति ही जैसे रूठ गई है
औ' आर्त विलाप से ही वीणा टूट गई है
सुमन- वृष्टि है , विस्मित- सी सृष्टि है
पर भविष्योन्मुख ही सधी ये दृष्टि है
आँखें मूंदे- मूंदे हर क्षण बीत जाता है
औ' स्वप्न जीवन से जैसे जीत जाता है
विद्रुप हँसी हँस लहलहाती है ये लघुता
कभी तो किसी कृपाण से कटे ये कृपणता
विकृत विधान है , असहाय स्वीकार है
छोटा- सा जीवन जैसे बहुत बड़ा भार है
बस व्यथा है , वेदना है , दुःख है , पीड़ा है
भ्रम है , भूल है , पछतावा है , पुनरावृत्ति है
स्खलन है , कुढ़न है , अटकाव है , दुराव है
अतिक्रामक निर्लज्जता से निरुपाय कृति है
मानती हूँ , इस प्राप्त वृहद युग में
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?
गजब अनुभूति। ऐसा ही हाल इधर भी है।
ReplyDeleteसुमन- वृष्टि है , विस्मित- सी सृष्टि है
Deleteपर भविष्योन्मुख ही सधी ये दृष्टि है
आँखें मूंदे- मूंदे हर क्षण बीत जाता है
औ' स्वप्न जीवन से जैसे जीत जाता है...........आज पुन: आपकी यह रचना सीधे ह्रदय से टकराई है। लगा जिस परिस्थिति में आपने रचना रची, वैसी परिस्थिति मेरे साथ भी थी।
ये इत्तेफ़ाक़ तो नहीं .. इतनी सधी हुई दृष्टि न जाने कितना मौसम परख लेती है. अचंभित करती हुई अनंत वेदना।
ReplyDeleteजितना रस है उतना जीवन भी है ... बस अँजुरी भरने की देर है ... अधबुध शब्द संसार ...
ReplyDeleteadbhut ,,,
ReplyDelete.....औ' स्वप्न जीवन से जैसे जीत जाता है....
ReplyDelete.....अतिक्रामक निर्लज्जता से निरुपाय कृति है...
लगा जैसे महाभारत के बाद कृष्ण को विषाद हो आया हो.
विषादयोग के बाद ही अर्जुन को ज्ञानयोग मिला था और अंत में भक्ति योग..सही राह पर है पथिक
ReplyDelete"सारा रस तो रस पाने की इच्छा में अँजुरी फ़ैलाने में ही है|"
ReplyDeleteआज बहुत दिनों पश्चात् आपके गलियारे में आना हुआ, आते ही एक श्रेष्ठ रचना से भेंट हो गई|
बधाई|
कहाँ बँध पाती है अंजलि ,कि रस समा सके उसमें !
ReplyDeleteबहुत खूब ....रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति की लिंक 26-01-2017को चर्चा मंच पर चर्चा - 2585 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteमनभावन रचना।
ReplyDeleteसीमित तत्व से असीम तक की यात्रा- जो वास्तव में जीवन है, उसकी कुंठा और उत्कंठा कदाचित इसी प्रश्न से हो कर गुज़रती है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़ के।
वाह बेहद गहन भाव
ReplyDeletevery beautiful,speechless after reading.thanks & heartily congratulation to you for such in depth poetry.
ReplyDeleteबहुत खूब अमृता। बहुत दिनों बाद दुबारा से जगा। बेहद गहन भाव।
ReplyDeleteबस व्यथा है , वेदना है , दुःख है , पीड़ा है
ReplyDeleteभ्रम है , भूल है , पछतावा है , पुनरावृत्ति है
स्खलन है , कुढ़न है , अटकाव है , दुराव है
अतिक्रामक निर्लज्जता से निरुपाय कृति है.......Wah....
और इसी वर्तुल में वर्तमान शेष हुआ जाता है।
ReplyDeleteऔर इसी वर्तुल में वर्तमान शेष हुआ जाता है।
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