मैं बंदिनी
जंजीरों में जकड़े
बोझिल जीवन को लेकर
पथ के अंगारों को
अपने आलिंगन में लेकर
इक परिशेषी प्यास
परखते नयन में लेकर
और बिखरे सूनेपन को
मोही मन में लेकर
सुनसान दिशाओं में
शिथिल चरणों से
चले जा रही हूँ
चले जा रही हूँ......
मैं अंगारिणी
अपने ही अस्ताचल की ओर
इस तरह से बढ़ते हुए
अपने ही ह्रदय की
अबूझ कठोरता से
लड़े जा रही हूँ
लड़े जा रही हूँ
कहीं इस कठोरता में
मेरा ही भाव सूख न जाए
व थम-थम कर बहता सा
कहीं बहाव सूख न जाए
और अतरल होकर कहीं
सारा पिघलाव सूख न जाए......
मैं बंधकी
अपने रपटीले आकर्षण की
फिसला-फिसला कर भी
कोई तो अब बांधे
ज्वाला सा मेरे इस यौवन को
और यौवन के मूर्च्छित स्खलन को
और स्खलन के हर अवसादन को
और अवसादन के हर क्रंदन को....
सच! अहोभागी हैं वे
जिनके आंसुओं में भी
प्रमुद फूल खिलते हैं
और गंधी का सागर
उनके काँटों से भी
लिपट कर गले मिलते हैं
पर इस मरू के मग में
कोई प्राण-घन कहाँ घिरते हैं
और अज्ञात पीड़ा के होंठों पर
बरबस अतिप्रश्न ही फिरते हैं....
मैं कंटकिनी
काँटों सी ही
उलझते अतिउत्तरों में
क्यों ऐसे अटक रही हूँ
और अटक-अटक कर भी
भटके जा रही हूँ
भटके जा रही हूँ
अपने प्रसुप्ति के
हर परदेशी क्षण में
और उन अंगारों के ही
सुदृढ़ आलिंगन में
अपनी मूकता के सारे
मुरमुराते से विचेतन में
और उन अनुस्मृति के
उसी रपटीले आकर्षण में......
मैं क्षुब्धिनी
अपने क्षोभ से
अब बस यही कहती हूँ कि वह
मेरे आकर्षण को ही विकर्षित कर दे
और विकर्षण से मुझे दिग्दर्शित कर दे
और दिग्दर्शन से मुझे आत्म-संवेदित कर दे
और आत्म-संवेदन से बस मुझे परिशोधित कर दे
मैं बंदिनी .....
जंजीरों में जकड़े
बोझिल जीवन को लेकर
पथ के अंगारों को
अपने आलिंगन में लेकर
इक परिशेषी प्यास
परखते नयन में लेकर
और बिखरे सूनेपन को
मोही मन में लेकर
सुनसान दिशाओं में
शिथिल चरणों से
चले जा रही हूँ
चले जा रही हूँ......
मैं अंगारिणी
अपने ही अस्ताचल की ओर
इस तरह से बढ़ते हुए
अपने ही ह्रदय की
अबूझ कठोरता से
लड़े जा रही हूँ
लड़े जा रही हूँ
कहीं इस कठोरता में
मेरा ही भाव सूख न जाए
व थम-थम कर बहता सा
कहीं बहाव सूख न जाए
और अतरल होकर कहीं
सारा पिघलाव सूख न जाए......
मैं बंधकी
अपने रपटीले आकर्षण की
फिसला-फिसला कर भी
कोई तो अब बांधे
ज्वाला सा मेरे इस यौवन को
और यौवन के मूर्च्छित स्खलन को
और स्खलन के हर अवसादन को
और अवसादन के हर क्रंदन को....
सच! अहोभागी हैं वे
जिनके आंसुओं में भी
प्रमुद फूल खिलते हैं
और गंधी का सागर
उनके काँटों से भी
लिपट कर गले मिलते हैं
पर इस मरू के मग में
कोई प्राण-घन कहाँ घिरते हैं
और अज्ञात पीड़ा के होंठों पर
बरबस अतिप्रश्न ही फिरते हैं....
मैं कंटकिनी
काँटों सी ही
उलझते अतिउत्तरों में
क्यों ऐसे अटक रही हूँ
और अटक-अटक कर भी
भटके जा रही हूँ
भटके जा रही हूँ
अपने प्रसुप्ति के
हर परदेशी क्षण में
और उन अंगारों के ही
सुदृढ़ आलिंगन में
अपनी मूकता के सारे
मुरमुराते से विचेतन में
और उन अनुस्मृति के
उसी रपटीले आकर्षण में......
मैं क्षुब्धिनी
अपने क्षोभ से
अब बस यही कहती हूँ कि वह
मेरे आकर्षण को ही विकर्षित कर दे
और विकर्षण से मुझे दिग्दर्शित कर दे
और दिग्दर्शन से मुझे आत्म-संवेदित कर दे
और आत्म-संवेदन से बस मुझे परिशोधित कर दे
मैं बंदिनी .....
सुन्दर कविता गहन अर्थ समेटे |आभार
ReplyDeleteभावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति गुरुवार को चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है |
ReplyDeleteआभार
आत्मइच्छा पूर्ण हो, शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteओह! आपकी शब्दमाला और भाव विलक्षण हैं अमृता जी.
ReplyDeleteसच में तन्मय करते हैं.
आभार.
बहुत ही सुंदर ..... मन की चाह की गहरी अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावधारा अमृता जी
ReplyDeleteअद्भुत अभिव्यक्ति, हम मन में जीवन की राह नियत करते रहते हैं, पर यह तो ऐसी अलबेली चाह लिये है कि सब भटकन सा लगता है।
ReplyDeleteसमय का पहिया घूमता है और फिर कांटे की सोहबत का असली अर्थ पता चलता है.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आपका-
इच्छाए अनन्त हैं .....शुभकामनाएं !
ReplyDeleteनई पोस्ट सर्दी का मौसम!
नई पोस्ट लघु कथा
मै बंदिनि, अंगारिणि, बंधकी, क्षुब्धिनि
ReplyDeleteमैं मुक्त, स्वच्छंदिनि, वर्षा, लुब्धा,मोहिनि
मेरे ये कितने रूप, कितने सपने
भावों और शब्दों का अद्भुत संयोजन....
ReplyDeleteकिन्तु मन की इच्छाओं का कभी अंत कहाँ होता है...दो गज़ जमीन चाहिए तो गज कफन के बाद।
ReplyDeleteगहन अर्थ समेटे बहुत ही सुंदर .रचना...
ReplyDeleteओ पंखुरी...कितना कुछ है तेरे आकाश में...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteवाह ! अमृता जी सब कुछ कह दिया है आपने अपनी रचना में...........
ReplyDeleteKaby ke itihash me hriday ki wedna ka itna bhawmay chitran durlabh saa milta hai.aap ke bhawon ki anbhuti antartam ki gahraiyon ko jhakjhor deti hai . Kase sthir hai bhawnaon ka aisa toofan?
ReplyDeleteKaby ke itihash me hriday ki wedna ka itna bhawmay chitran durlabh saa milta hai.aap ke bhawon ki anbhuti antartam ki gahraiyon ko jhakjhor deti hai . Kase sthir hai bhawnaon ka aisa toofan?
ReplyDeleteवाह गहन वेदना का अद्भुत चित्रण ...बधाई अमृता जी ।
ReplyDeleteबेहद गहन भाव लिये मन को छूती अभिव्यक्ति
ReplyDeleteप्रभावी भाव संयोजन .....
ReplyDeleteअद्भुत भाव संयोजन … फिर भी चलते जाना है, जब तक जीवन है ....
ReplyDeleteकल 13/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
कितने भाव समेटे दिल में कितने रूप छिपाए तन में...चली जा रही मैं विहंसिनी..कोई साथ चल रहा मेरे..पल पल नजर टिकाये अपनी..मैं प्रणयिनी.....
ReplyDeleteATISUNDAR ...GAHAN BHAWO KO SAMETE HUYE BADHAYI
ReplyDeleteउत्कृष्ट भाव ... अंतिम पंक्तियों पे आते आते तो भावाग्नी चरम हो उठती है ... गहन भावाव्यक्ति ...
ReplyDeleteअद्भुत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुंदर भाव...सुंदर रचना...
ReplyDeleteबहुत गहन और सुन्दर |
ReplyDeleteपरितोषिक है प्रणय शोध की अनुमत भोग्या ,
ReplyDeleteअनुपूरक आकांक्षाओं से मुखरित भाव व्यंजना |
साधो आ. अमृता जी ;... शब्द वाचस्पति भवः |
साधो आ. अमृता जी ...
ReplyDeleteआप निःसंदेह, शब्द वाचस्पति हैं |
....
प्रणय शोध को अनुमत भोग्या |
विस्मृत को उदीप्त मुखरित करती भाव व्यंजना |
मन की उलझी अवस्थाओं से मुक्त हो जाए हर बंदिनी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !