लागे है मुझ को बड़ा आन सखी !
उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !
तू उसकी ऐसी हँसी न उड़ा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
लुटे-लुटे से पुलक है निशदिन
ठगे-ठगे से प्राण है पल-छिन
पर मेरे काँटों को तू न यूँ गिन
औ' न ही अश्रु-पुष्पों को भी बिन
मेरी व्यथा से तू न तिलमिला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
कितने ही यत्न से छुपाये रखती हूँ
इस जलते ह्रदय को बुझाये रखती हूँ
भींगी पलकों को भी सुखाये रखती हूँ
देख , अधरों को भी मुस्काये रखती हूँ
मेरे माथे पर तू हाथ न फिरा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
ऐसे मत दे उसको तू ताने सखी !
मेरे होने का है वही तो माने सखी !
बड़ी मीठी प्रीति है तू न जाने सखी !
सच कहती हूँ मैं क्यों न माने सखी !
ये राग ही तो है कठिन बड़ा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
इक मदिर अदह आग -सा वह
अछूता सुमन का पराग -सा वह
मधुमास में महकता फाग -सा वह
औ' मन के मधुगान का राग -सा वह
कुछ कह कर तू मुझे न बहका
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
उसके आगे तो सब रंग हैं फीके
तृप्त होती मैं उसी का जल पीके
हाय! मर जाती मैं उसी में जी के
पर चुप ही रहती अधरों को सी के
न बहलूं मैं , मुझे यूँ न बहला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
मधु से मुझे नहलाता वही सखी !
मुझपर रस बरसाता वही सखी !
इस देह-बंध को खुलकाता वही सखी !
औ' प्रेम-गंध से लिपटाता वही सखी !
जलन के मारे तू यूँ न बुदबुदा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
लागे है मुझ को बड़ा आन सखी !
उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !
विरह की जली मैं और न जला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !
तू उसकी ऐसी हँसी न उड़ा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
लुटे-लुटे से पुलक है निशदिन
ठगे-ठगे से प्राण है पल-छिन
पर मेरे काँटों को तू न यूँ गिन
औ' न ही अश्रु-पुष्पों को भी बिन
मेरी व्यथा से तू न तिलमिला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
कितने ही यत्न से छुपाये रखती हूँ
इस जलते ह्रदय को बुझाये रखती हूँ
भींगी पलकों को भी सुखाये रखती हूँ
देख , अधरों को भी मुस्काये रखती हूँ
मेरे माथे पर तू हाथ न फिरा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
ऐसे मत दे उसको तू ताने सखी !
मेरे होने का है वही तो माने सखी !
बड़ी मीठी प्रीति है तू न जाने सखी !
सच कहती हूँ मैं क्यों न माने सखी !
ये राग ही तो है कठिन बड़ा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
इक मदिर अदह आग -सा वह
अछूता सुमन का पराग -सा वह
मधुमास में महकता फाग -सा वह
औ' मन के मधुगान का राग -सा वह
कुछ कह कर तू मुझे न बहका
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
उसके आगे तो सब रंग हैं फीके
तृप्त होती मैं उसी का जल पीके
हाय! मर जाती मैं उसी में जी के
पर चुप ही रहती अधरों को सी के
न बहलूं मैं , मुझे यूँ न बहला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
मधु से मुझे नहलाता वही सखी !
मुझपर रस बरसाता वही सखी !
इस देह-बंध को खुलकाता वही सखी !
औ' प्रेम-गंध से लिपटाता वही सखी !
जलन के मारे तू यूँ न बुदबुदा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
लागे है मुझ को बड़ा आन सखी !
उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !
विरह की जली मैं और न जला
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
सखी के माध्यम से सुन्दर कविता |आभार
ReplyDeleteसन्देश में पिरोये मन के भाव......
ReplyDeleteसुन्दर मनोभाव-
ReplyDeleteसखी को भी बधाई-
आभार आदरेया-
उसके ऐसे-ऐसे आयाम तुममें, तो फिर विरह के क्या मायने!......झंकृत हुआ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर विरह गीत की प्रस्तुति .....
ReplyDeleteअद्भुत भाव ...गहन पीड़ा ...बहुत सुंदर रचना अमृता जी
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteजो ले दिल की बात सुन
ReplyDeleteवो बहुत प्यारी है रे सखी
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाली रचना...
ReplyDeleteअति उत्तम...
http://mauryareena.blogspot.in/
:-)
ऐसे मत दे उसको तू ताने सखी !
ReplyDeleteमेरे होने का है वही तो माने सखी !
बड़ी मीठी प्रीति है तू न जाने सखी !
सच कहती हूँ मैं क्यों न माने सखी !
ये राग ही तो है कठिन बड़ा
जा सखी , अब तू अपने घर जा !
वाह परमपिता को समर्पित सुंदर रचना न मानने वालों को न मानते हुए।
बहुत सुंदर भावों से गूंथा है अमृता जी आपने यह विरह गीत ....
ReplyDeleteउतनी ही सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteविरह सहती, पर मन की कहती
ReplyDeleteजो पास रहकर भी दूरी का अहसास कराए वही तो है वह...
ReplyDeleteहिमशैल क्या जाने तपने का गुण. अग्नि के पखारे जीवन की आभा सब देख भी नहीं सकते. अति सुन्दर सन्देश.
ReplyDeleteसखी री तूने तो कमाल कर दिया :-)
ReplyDeleteperfect
ReplyDeleteAtiutam-*****
नहीं कहते पाषाण चलो !
ReplyDeleteसुन्दर !
वाह ! बहुत ही सुन्दर रचना ! विरह, मिलन, पीड़ा, संताप, मान, अभिमान, भक्ति, आसक्ति, मन के हर भाव को समूर्त कर दिया आपने रचना में ! मर्मस्पर्शी एवं आत्मीय सी रचना ! आभार !
ReplyDeleteसंध्या जी ने सच कहा .........
ReplyDeleteसखी के बहाने सब कुछ समाहित कर के कह दिया !! सुंदरतम !!
ये तो पार्वती और सप्तऋषियों का संवाद हो गया -जो शंकर के प्रति पार्वती के अनन्य अनुराग की परीक्षा लेने गए थे -मगर पार्वती अटल और निश्चल थीं अपने शिव -अनुराग को लेकर !
ReplyDeleteधन्य है कवयित्री का प्रेम ,उसका ईर्ष्या उपजाता आराध्य !
सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteमन के भावों को बहुत ही खूबसूरती से कविता रूप में पिरो दिया है आपने मन के हर एहसास हर जज़्बात से जुड़ी बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteढ़ेर सारे ईमानदार शब्दों के बीच... एक अबोध काव्य... न जाने क्यों ह्रदय को बेचैन करती हुई....पर आप पर गर्व पहले भी था.. अब भी है... हमेशा रहेगा....
ReplyDeleteये आपकी सखी है कौन? अच्छा हुआ आपने उनकी बात नहीं मानी -भला हो आपकी सद्बुद्धि का अन्यथा एक सखी की बात कैकेयी ने मान ली थी और राम को वैन जाना पड़ गया था !
ReplyDeleteरोचक -प्रभावशाली
ReplyDeleteबहुत सुंदर---!!!!!
नायिका के भावों के साथ सखी के भावों का सुंदर मिश्रण हुआ है. एक गीति नाटिका-सा रस आता है.
ReplyDelete"देख , अधरों को भी मुस्काये रखती हूँ"
क्रिया का ऐसा प्रयोग पहली बार देखा है जो सीधी अभिव्यक्ति करता है. बधाई.
ओह अमृता जी! इस कविता को itnrnet पर पढ़ कर निहाल हुई ये आपकी है जानकर हैरान हूँ! कोटि कोटि आभार; आप जहाँ भी हो तुरंत जागृत हो लेखनी उठाएं 🙏🙏🙏🌺🌺🌹🌹❤❤
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