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Friday, September 3, 2010

कितना सुकून देता है

कभी कभी
स्वयं  की बनायी
स्वयं  के लिए  ही
स्वप्नसृष्टि   को
स्वयं की स्वतंत्रता  के लिए
आत्मघाती  हमला कर
चिथड़ा  चिथड़ा  कर देना
कितना सुकून  देता है
यह  स्वतंत्रता
बाहरी दुनिया  से
अपनी  दुनिया  से  भी
स्वतंत्र  दुनिया
उन चिथड़ों  से  कभी
हवाई  जहाज  बनाकर
हवा  में  उछालना
कभी  नाव बनाकर
पानी  में चलाना
कितना सुकून  देता  है
मन पे  पोती गयी
खुशियों  के  झूठे 
इन्द्रधनुषी  रंगों  को
उन्हीं  चिथड़ों  से
रगड़कर  छुड़ाना
बदरंग  खुशियों  का
स्वयं  पर ही
कुटिल  मुस्कान  फेंकना
कितना  सुकून  देता है
दोनों  भवें  उछाल उछाल  कर
स्वयं  का  ही  हाल चाल लेना
या फिर  ये जताना  कि
सुख  दुःख  से परे  भी
होती है कोई  ख़ुशी
जो स्वयं  से भी
स्वतंत्र  होकर 
सुकून  देता  है
हाँ
कितना  सुकून  देता है .

Wednesday, September 1, 2010

समय जो दिखता तो

समय जो दिखता तो
मैं भी देख पाती समयांतर.....
संभवतः आदम के साथ सेव खाते हुए
या फिर प्रलय प्रवाह में बहती होती
छोटी सी डोंगी में मनु के साथ
एक और सृष्टि सृजन  के लिए......
समय जो दिखता तो
मैं हो जाती समकेंद्रिक
समयनिष्ठ हो करती नाभिकीय विखंडन
सूरज की तरह देती अनवरत उष्मा
समय सारिणी को परे हटाकर
एक सुन्दर जीवन जीते सभी........
समय जो दिखता  तो
मैं बन जाती समदर्शी
देख पाती गेंहूँ गुलाब की उदारता
सभी पेट भरे होते सभी ह्रदय खिले होते
और गलबहियां डाले दोनों गाते
सबों के लिए समानता का गीत .............
समय जो दिखता तो
मैं भी हो जाती समसामयिक
कल की रस्सी पकड़ कल पर कूदने वालों को
खीँच लेती आज में अपनी समस्त उर्जा से
जिससे हो जाता सामूहिक समुदय.........
समय जो दिखता तो
मैं ही समय हो जाती .

Sunday, August 29, 2010

उधार

कहो तो कुछ शब्द
मैं तुम्हें उधार दूँ
जिससे तुम प्रेम को
अभिव्यक्त कर सको
जब तुम प्रेम में होते हो
आँखों से कुछ बहता है
तुम तरंगित हो उठते
थरथराते हाथों से तुम मुझे
समेट लेना चाहते  हो
कंपकंपाती  देह  मेरे अस्तित्व  में
मिल जाना चाहती है
तुम केवल  इतना चाहते हो
कि यह पल थम सा जाये
मैं साक्षी  बन जाऊं
तुम्हारे  इस प्रेम का
कहो  तो कुछ ही शब्द
मैं तुम्हे  उधार  में दूँ
जिससे तुम  कुछ  कह सको
जो गूंजता  रहे अनवरत
मेरे ब्रम्हांड  में
ओओम् की  तरह .

गीली मिटटी

तुम  मूर्तिकार
गीली मिट्टी मैं
अपनी अतृप्त
इक्षाओं के ढांचें पर
लगाकर मुझे
बनाते हो
खुबसूरत मूर्ति
सपना कल्पना व
वासनाओं से
सजाते हो मुझे
सम्पूर्ण कुशलता का
उपयोग कर
स्वांग रचते हो
मुझमें प्राण भरने का
मैं जानती हूँ
मेरी पूजा भी करोगे
सबके साथ तुम
उत्सव भी मनाओगे
फिर मैं विसर्जित
कर दी जाऊँगी किसी
गन्दी नाली नदियों में
मैं मृणमूर्ति पुनः
मृणमय हो जाऊँगी
और तुम्हारे हाथ
फिर गीली मिट्टी ही
रह जायेगा .

Wednesday, June 30, 2010

मसालेदार लजीज कविता .......

कुछ अति साधारण से
लोकल चलताऊ शब्दों में
दो - चार नहीं
पाँच - दस अर्थों को भर कर
मेकओवर , कॉस्टमेटिक सर्जरी करवाकर    
किसी बड़े  फैशन डिजायनर के
लेटेस्ट मॉडल का ड्रेस पहनाकर
आज की मेनकाओं की तरह
नग्नता के ठुमके लगवाकर
अवार्ड विनिंग संगीतकार के
चोरी किये गए धुन पर
कुछ बे- ताल से ताल मिलाकर
किसी बड़े ओपन स्टेडियम में 
सेलेब्रेटियों के बीच  नचवाकर
कविता तो बनाई जा सकती  है 
मसालेदार  लजीज  कविता 
देखने  सुनने  वालों  के मुँह में 
कोल्ड ड्रिंक्स  वाली लार भर 
बूंद - बूंद से  प्यास  मिटा  सकती  है 
साहित्य  अकादमी  वाले  
सभ्यता  संस्कृति  के नाम पर 
शर्म की  झीनी  चदरिया  ओढ़  भी  ले
पर  ग्लोबलाइज्ड   पुरस्कारों  को
महान  कवियों  के  लाल  में भी  दम  नहीं
कि  कीर्तिमान  बनाने  से  रोक  ले

संभावनाओं के बीज

अपने  ह्रदय के उपजाऊ भूमि पर

मैं करती रहती हूँ

असीम संभावनाओं की खेती

हर बेहतर आज और कल के लिए

उम्मीदों से करती हूँ जुताई

बुद्ध , गाँधी से लेती हूँ बीज 

शांति , प्यार का करती हूँ बुवाई 

आशाओं का बनाती हूँ मेढ़

कल्पनाओं से देती हूँ उष्णता 

अनंत इच्छाएं बन बरसती हूँ 

करुणा से उसे सींचती हूँ 

आशंका , दु:स्वप्न , अनहोनी ......का 

करती रहती हूँ निराई-गुराई 

लहलहाती झूमती -गाती फसलों को 

देख खुश होती रहती हूँ 

कि कहीं पेट की आग से बचने को 

कई जिंदगियां कर लेते हैं 

स्वयं ही सामूहिक अंत 

होने लगती है ऑनर किलिंग 

कोई लिख जाता है..' आई  क्वीट '

कहीं मनाई जाती है दीवालियाँ

तो कहीं खेली जाती है खून से होलियाँ 

अतिवृष्टि , अनावृष्टि कर देते हैं 

मेरे फसलों को बर्बाद ....

एकबारगी मेरा ह्रदय हो जाता है बंजर 

और मैं फिर से जुट जाती हूँ 

संभावनाओं के बीज की खोज में   . 

Monday, June 28, 2010

अनुभूति

विश्वास की लाल कालीन पर

निराशाओं के बिखेरे फूलों पर

आशाओं को आँखों में भरे हुए

चलते जाना नियति है या मज़बूरी

कि एक दिन मानवता की

खुबसूरत कल्पनाएँ सच हो जाएँगी

जिस प्यार दोस्ती की बातें

अमन चैन की बातें

शांति सुकून की बातें

हरियाली खुशहाली की बातें

समानता स्वतंत्रता की बातें

वाद -विवाद करने योग्य

मुद्दा नहीं रह जायेंगे

इन मुद्दों का हो जायेगा

उन्नमूलन इनके जड़ों से

फिर तो हमारी कल्पनाएँ

केवल एक ही रहेंगी

कि धरती की इस सुन्दरता को

और कैसे निखारा जाये

और हमारे पास केवल

एक ही भाव बचेंगे

अनुभूति केवल आनंद की

अनुभूति.... अनुभूति

और धरती सही मायने में

स्वर्ग हो जाएगी .

Thursday, April 8, 2010

कोई फर्क नहीं पड़ता

कोई फर्क नहीं पड़ता
कि हम कहाँ हैं
हो सकता है हम
आँकड़े इक्कठा करने वाले
तथाकथित मापदंड पर
ठोक-पीट कर
निष्कर्ष जारी करने वाले
बुद्धिजीवियों के
सरसरी नज़रों से होकर
गुजर सकते हैं
हो सकता है कुछ क्षण के लिए
उनकी संवेदना  तीक्ष्ण जो जाये
ये भी हो सकता है कि
उससे संबंधित कुछ नए विचार
कौंध उठे उनके दिमाग में
समाधान या उसके समतुल्य
ये भी हो सकता है कि
बहुतों का कलम उठ जाये
पक्ष -विपक्ष में लिखने को
अपनी कीमती राय
कर्ण की भांति दान देते हुए
पर जिसका चक्रव्यूह
उसमें फंसा अभिमन्यु वो ही
महारथियों से घिरा
अपना अस्तित्व बचाने को
पल प्रतिपल संघर्षरत
आखिरी साँस टूटते हुए उसे
दिख जाता है
विजय कलयुग का .

मुझे पता है

बेहद सर्द रातें

बर्फीली हवाएं

घने कोहरे को ओढ़े

गहरे पानी में

निर्वस्त्र खरी मैं

छ : महीने की भी

जो होतीं रातें तो

अगले छ : महीने तक

रहता मेरा सूरज

न जाने किस ग्रह पर

बसेरा है मेरा

जहाँ सदियों से केवल

रातें ही हैं

रातें और गहरी रातें

और मैं जिन्दा भी हूँ

मेरे सूरज तुम्हे मैं

उगाये रहती हूँ हरसमय

अपने ह्रदय में

मुझे पता है

तेरी उष्णता मेरे खून को

कभी बर्फ बनने नहीं देगी .





Wednesday, April 7, 2010

तुमने कहा

तुमने कहा -
जिस आवृति से
विभिन्न तरंगदैर्ध पर
उठता गिरता है
तुम्हारा विचार
जिससे आवेशित होती हो
कम्पित होती हो
यथावत ईमानदारी से
रख दो उन विचारों को
कविता का सृजन होगा
पर क्यूँ दिखता है
सबकुछ धुंँधला धुंँधला
मेरे विचार ओढ़े हैं
मेरी कड़वाहट को
या मेरी आँखों पर
है काली पट्टी
या आईना पर
चढ़ गया है कल दोतरफा
कैसे दिखेगी कविता
अपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
निश्छल निष्कलंक .