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Wednesday, January 20, 2021

अवशेष .....

मानसिक विलासिता के 

सोने के जंजीरों से 

सिर से पांव तक बंधे हुए 

अमरत्व को ओढ़कर

मरे हुए इतिहास के पन्नों पर 

अपने नाम के अवशेष से

चिपकने की बेचैनी

खुद को मुख्य धारा में

लाने की छटपटाहट

चाय की चुस्कियां

आराम कुर्सियां

वैचारिक उल्टियां

प्रायोजित संगोष्ठियां

मुक्ति की बातें

विद्रुप ठहाके

इन सबमें

एक दबी हुई हँसी 

मेरी भी है .

15 comments:

  1. उत्कृष्ट शब्द समन्वय से परिपूर्ण प्रस्तुति।
    सादर।

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  2. बहुत खूब.. यह हँसी स्वीकारोक्ति है या उपेक्षा के भाव से भरी है, अथवा तो इन सबकी असलियत पहचान कर आयी हँसी, पर वह तो दबी हुई नहीं होगी, जोरदार होगी, है न !

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  3. 'इन सबमें

    एक दबी हुई हँसी

    मेरी भी है '


    स्वाभाविक है ऐसा होना।

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  4. बहुत खूबसूरती से, कम शब्दों में बड़ी बात कह दी आपने अमृता जी..

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  5. वाह!गज़ब का सृजन आदरणीय दी।
    सादर

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  6. बहुत खूब !!!
    बेहतरीन रचना अमृता तन्मय जी 🌹🙏🌹

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  7. वाह अद्भुत 👌🏻👌🏻

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  8. अमरत्व को ओढ़कर
    मरे हुए इतिहास के पन्नों पर
    अपने नाम के अवशेष से
    चिपकने की बेचैनी
    खुद को मुख्य धारा में
    लाने की छटपटाहट
    सभी ऐसोआराम के साथ प्रायोजित संगोष्ठियों में ऐसी विद्रुप हँसियों के खिलाफ जाकर इतिहास में वर्णित उनके नाम को मिटाने की ताकत तो नहीं पर एक दबी हुई हँसी का व्यंगबाण ही सही...।
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

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  9. बहुत खूब ल‍िखा अमृता जी,चाय की चुस्कियां

    आराम कुर्सियां

    वैचारिक उल्टियां

    प्रायोजित संगोष्ठियां

    मुक्ति की बातें...वाह

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  10. बहुत बढ़िया सृजन,अमृता दी।

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  11. बहुत खूब.... लाजवाब सृजन ।

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  12. ढूंढ कर लाएं हैं..गहराइयों से निकालकर..
    अपनाने के लिए कुछ, या रह जाने के लिए टालकर..

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  13. वाह क्या बात है. आसपास की क्रियाओं के प्रति तटस्थ हो कर सही जगह तीर मारा है.

    मानसिक विलासिता के
    सोने के जंजीरों से...

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  14. बहुत बहुत सशक्त सुन्दर रचना

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