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Thursday, January 14, 2021

पुनः प्रथम मिलन ..........

 इस शीत ॠतु में भी , स्वेद-कण ऐसे चमक रहे हैं

हृदय से ह्लादित होकर , रोम-रोम जैसे दमक रहे हैं

यह अद्भुत संयोग भी हो रहा है , हमारा ही आभारी 

और हमारी सुगंध से , गहक कर कैसे गमक रहे हैं


कैसे आवेशित हो गया ,  इस जगती का कण-कण

जैसे प्रचंड कंपन से ,  डोल गया हो यह धरती-गगन

साक्षी होकर सृष्टि भी ,  अचंभित हो गई होगी ऐसे

जैसे शिव-शक्ति का ही , हुआ हो पुनः प्रथम मिलन


अब आत्मस्मरण ओढ़ रहा है , क्षीणता का आवरण

तरंग हीन हो कर , कहीं और अंतर्धान हुआ यह मन 

विश्रांति की इस बेला में , वज्र नींद आकर कह रही 

संयोग श्रम से ही श्लथ हुआ है ,  तेरा तंद्रित यह तन


अब तो एक तरफ है , पलकों पर , नींद की प्रबलता

और दूसरी तरफ है , तुम्हारे इन हाथों की कोमलता

जो तुम ऐसे सहला-सहला कर , मुझे यूँ सुला रहे हो 

तो अधरों को भी रोको न , अब इतना क्यों है चूमता


माथे , आँखों , गालों , अधरों पर ,  तेरा स्मित चुंबन

इन लटों में , फिरती हुई सी उंगलियों की ये थिरकन

वो बैठी नींद भी आँखें खोलकर , देख रही है हमें ही

और मुस्कुराये जा रही है , पोरों की मीठी-सी थकन


छोड़ो भी , अब झूठ-मूठ का मुझे , यूँ ही न सहलाओ

बाहों में छुप कर सोने दो मुझे , औ' तुम भी सो जाओ

सरस , सम्मोहक सपने भी , सज-संवर कर आने को

प्रतीक्षारत हैं , उनका भी नींद से मधुर मिलन कराओ


हा! तुम्हें ऐसे लय लोरी गाने को , अब कौन बोल रहा है

जैसे उत् शीतलता में , कोई उष्ण मादकता घोल रहा है

ये चुंबन और ये सहलाना , ऊपर से ये उन्मुग्ध लोरी गाना

अठखेलियां तो कह रही है , तुम्हारा मन फिर डोल रहा है


मुझे सुला रहे हो , या सच-सच कहो कि सुलगा रहे हो

चंदन-सा तन हुआ है , फिर से क्यों अगन लगा रहे हो

अगन जब लग जाएगी तो , आहुत तुम्हें ही होना होगा

क्यों अनंगीवती को फिर से छेड़ ,  तुम ऐसे जगा रहे हो


अनंगीवती जो जागेगी तो , फिर उसे सुला न पाओगे

सब जान-बूझकर भी , अनंगदेव को फिर से हराओगे

जानती हूँ , हमसे हार के भी तुम्हें सत् सुख मिलता है 

पर इस तरह जीताकर , मुझे दुष्पुर दुख ही पहुँचाओगे


ये निंदासी निशी भी , अब कुहरे से लिपट कर सो रही है

शनै: शनै: आनाकानी , मनमानी की अनुगामी हो रही है

पुनः ये पुण्यतम क्षण , निछावर हो रहा है चरणों पर तेरे

औ' सौंदर्य लहरियां संयोगक्रीड़ा में घुल-घुल कर खो रही है .


9 comments:

  1. कैसे आवेशित हो गया , इस जगती का कण-कण

    जैसे प्रचंड कंपन से , डोल गया हो यह धरती-गगन

    साक्षी होकर सृष्टि भी , अचंभित हो गई होगी ऐसे

    जैसे शिव-शक्ति का ही , हुआ हो पुनः प्रथम मिलन..प्रेम के सम्पूर्ण होने के परिदृश्य को रेखांकित करती सुंदर कृति..

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  2. निशब्द करती गहन भावाभिव्यक्ति ।। अत्यंत सुन्दर सृजन ।

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  3. बेहद खूबसूरत शब्द चित्र।

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  4. बहुत सुंदर रचना

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  5. बहुत ही सुन्दर सृजन - - एक अलहदा एहसास।

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  6. लाजबाव सजृन। आपको शुभकामनाएं।

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  7. इससे पहले हिंदी कविता में ऐसा श्रृंगार चित्रण नहीं पढ़ा. अब आपकी कवियित्री की सहज वापसी हुई जान पड़ती है.
    बहुत सुंदर रचना.

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  8. मुझे बिहारी की पंक्तियाँ याद आ गई, जिसमे नग्न भास्कर देह वल्कल वाली नायिका वस्त्रहीन कर दिए जाने के बाद भी देह छवि के कान्तिमय आवरण के कारण बेलाज नही हुई

    दीप उजेरे हू पतिहि हरत वसन रति काज ।
    रही लिपटि छवि की छटन नैको छूटी न लाज।।

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