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Tuesday, January 31, 2017

विकल्पहीनता में .......

इस विगंधी वातावरण में
कितना कठिन हो गया है
कवि- हृदय को बिकसाना
यदि बिकस भी गया तो
और भी कठिन हो गया है
उसे मिलावट व बनावट से बचाना

जहाँ अर्थ है , काम है , भोग ही मनबहलाव है
वहाँ प्रेम भी बाड़ी- झाड़ी में उग- उग कर
बड़े प्रेम से हाट- खाट पर बिक- बिक जाता है
तब बौखलाया- सा कवि- हृदय
बेकार ही कड़वाहट को पी- पीकर
शब्दों की कालकोठरी में छुपकर छटपटाता है

क्या सपनों से सूखा , बंजर खेत है हरियाता ?
या सिर्फ कल्पनाओं से ही वसंत है आता ?
या भावनाओं से जीवन- तत्व है बदल जाता ?
तब कवि- हृदय चाहता है कि चुप रह जाए
विकल्पहीनता में जो हो रहा है , देखता जाए
और बिना आहट के , अनजान- सा निकल जाए

आग्रहों- दुराग्रहों का चश्मा कैसे तोड़ा जाए ?
शंकाओं- संदेहों के गोंद को कैसे छोड़ा जाए ?
कथ्यों- तथ्यों को कैसे सहलाया जाए ?
और आयोजनों- प्रयोजनों को कैसे समझाया जाए ?
या तो कवि- हृदय को ही है बना- ठना कर बहलाना
या फिर सीख लिया जाए बस बेतुकी बातें बनाना .

18 comments:

  1. शायद सच भी हो की कवि बनाता है बेतुकी बातें पर मन तो बहलता है पढ़ने वालों का ... सौंदर्य देता है शब्द को ...

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  2. नहीं लगता आपको कि 'विकल्‍पहीनता में...' भी 'उसे न जाने क्‍या हो गया' का ही एक मर्मांश है?

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  3. स्मृतियाँ भी कुछ कम नहीं जो रह रह हुलसा जाती हैं।

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  4. Vikalpheenta me kavi hriday chatpatata hai...na chahte hue bhi shabdon ko hriday se baahar nikal leta hai...kya kiya jaaye ? sawaal to hai..par jawaab to usi kavi hriday ko dena hai....har baar.....har baar....

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 02-02-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2588 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  6. तब कवि- हृदय चाहता है कि चुप रह जाए
    विकल्पहीनता में जो हो रहा है , देखता जाए
    और बिना आहट के , अनजान- सा निकल जाए

    ....लगता है आज शायद यह ही हो रहा है...सोचने को मज़बूर करती गहन अभिव्यक्ति...

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  7. आग्रहों- दुराग्रहों का चश्मा कैसे तोड़ा जाए ?
    .... कौन तोड़ेगा ?

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  8. प्रकृति में बसंत ही बसंत छाया है नजरें उठाकर देखने की जरूरत है..शहरों से दूर जरा गांवों तक जाने की जरूरत है..मन तो पतझड़ के गीत ही गाता आया है..मन को आज तक कौन समझा पाया है..

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    1. कितनी बड़ी बात कह डाला ।देखने या

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    2. आप ने कितनी बड़ी बात कह डाला।संसार तो वैसा ही है जैसा हम देखना चाहते हैं।

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  9. अनुपम भाव संयोजन

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  10. कवि हृदय बहुत ही विशाल होता है.
    वह बाहर ही नहीं अन्दर भी झांखना जानता है जहाँ
    अमृत का ऐसा सागर लहलहाता है जिसमें आग्रहों- दुराग्रहों का चश्मा आप ही आप टूट भी जाता है और कवि स्वयं ही
    तन्मय नहीं ओरो को भी तन्मय करने में समर्थ होता है.
    आभार अमृता जी.

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  11. वैसे तो हर मौसम के साथ कवि के मनोभाव बदलते हैं लेकिन जीवन अपने ढंग से चलता है. जीवन का मौसम अलग से चलता है. कवि का कर्म है कि वह शब्दों और भावों को सजाता चलता है.

    सुंदर भावाभिव्यक्ति.

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  12. मैं नदी की कलकल को शब्द देता हूँ
    मैं सागर की नीर से खाली पीर सुनाता हूँ
    तन बेच कर रोटी कमाता हूँ
    मन से विरह,प्रणय के गीत गाता हूँ
    कल्पनाओं के आकाश में रहता हूँ
    कुछ नया मिले इस तलाश में रहता हूँ
    न दौलत हैं,न सोहौरत हैं,फिर भी नाम हैं मेरा
    मैं कवि हूँ,कविता करना काम हैं मेरा।
    http://savanxxx.blogspot.in

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  13. जहाँ अर्थ है , काम है , भोग ही मनबहलाव है
    वहाँ प्रेम भी बाड़ी- झाड़ी में उग- उग कर......

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  14. ऐसी भी क्या विकल्पहीनता हो गई. रचनात्मकता के अपने भीतर ही कई विकल्प होते हैं. लौट आइए.

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