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Thursday, July 24, 2014

अमृता में तन्मय ...

                   हाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
                   सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
                   ऐसी झलक दिखी है उसकी
                  कि सदियाँ जी ली क्षण में मैं

                  क्षण में ही जीकर सदियों को
                 जीवन के अर्थ को जान लिया
                 अक्षय-प्रेम का आभास पाकर
                गर्त के शीर्ष को पहचान लिया

                 मैं चौंकी , मेरी कुंठा जो टूटी
               अमृता से ही सब कुछ खो गया
               चित्त- चंदन को घिस- घिसकर
               एक सौरभ भर गया नया- नया

                धन्य हुई , आभार फिर आभार
               भाव में भासित उस चिन्मय को
                डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
               बचा न पाई , मैं इस तन्मय को

                 अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
                उच्चार में भी वो न समाता है
                पर इतना प्रीतिकर है वह कि
                 बिन उच्चारे रहा न जाता है

                 सांस में भीतर,सांस में बाहर
                 वही तो आता है औ' जाता है
                 पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
                 अमृता में तन्मय हो जाता है .

26 comments:

  1. अद्भुत, प्रवाहमयी काव्य रचना

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  2. नाम को सार्थक कर दिया आपने तो !

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  3. और बस अमृताजी और सिर्फ अमृताजी.....

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  4. ब्रह्मा ने जो शक्ति महापुरूषों, सन्तों , वीर, बलिदानियों को दी है, वही हम सबको भी दी हुई है, उसे समझने, अनुभव करने, से हममें भी वही स्फूर्ति शक्ति जागृत हो ही जाती है।

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  5. सांस में भीतर,सांस में बाहर
    वही तो आता है औ' जाता है
    पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
    अमृता में तन्मय हो जाता है .
    ..वाह...बहुत सार्थक और प्रवाहमयी अभिव्यक्ति...

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  6. पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
    अमृता में तन्मय हो जाता है
    इससे अधिक सुरीला आत्मपरिचय और क्या हो सकता है. दर्शन की सीमा में गई सुंदर रचना.

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  7. धन्य हुई , आभार फिर आभार
    भाव में भासित उस चिन्मय को
    डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
    बचा न पाई , मैं इस तन्मय को

    ये परिचय नहीं प्रवाह है ... सृजन का ... निर्माण का ... उस अमृत से एकाकार होने का ... उसमें तन्मय हो जाने का ...

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  8. सुन्दर अतिसुन्दर शोभनम्

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  9. अमृता में तन्मय हो जाना...
    सार्थक नाम, सार्थक चिंतन...!

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  10. अमृता में तन्मय हो जाती हूँ और अपना होना सार्थक करती हूँ .
    सुन्दर रचना !

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  11. वाह...कितना खूबसूरत ! :)

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  12. मंगलकामनाएं आपको !

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  13. आपके कविता के इस सृजन संसार में आपकी प्रतीक्षा है.

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  14. स्वयं की सार्थकता की अनूभूति में ही जीवन की सर्वोपरि सार्थकता है! ईश्वर आपकी इस अनूभूति को चिर काल तक प्रतिष्ठित रखे! ढेरो बधाईयाँ व शुभकामनायें!

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  15. वाह, उत्कृष्ट रचना के लिये बधाई।

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  16. No posts since long -Trust everything is fine!

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  17. हाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
    सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
    ऐसी झलक दिखी है
    बहुत ही रहिस्य से भरी पँक्तिया
    आपका ब्लॉगसफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटरपर लगाया गया हैँ । यहाँ पधारै

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  18. http://hindihainhumsab.blogspot.in/2014/10/blog-post_10.html

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  19. आपकी लेखन शैली को हम मिस कर रहे हैं आजकल.

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  20. वाह क्या कहने !!!

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  21. अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
    उच्चार में भी वो न समाता है
    पर इतना प्रीतिकर है वह कि
    बिन उच्चारे रहा न जाता है


    उस अमृत से प्रीति लग जाए तो यही होता है
    बहुत सुन्दर !

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  22. सच कहा आपने
    तन्मय होने के लिए उसे बुलाना ही होता है.

    अमृता की तन्मय प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.

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