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Friday, May 16, 2014

क्यों न हम ...

इस ग्रीष्म की
आकुल उमस में
ऊँचें पर्वतों के
शिखरों से लेकर
समतल मैदानों में
साथ ही सूखी-बंजर
जमीनों के ऊपर भी
एक बादल
ऐसे घिर आया है
कि आँखों में
भर आया है
सारा आकाश....
जैसे
आशंका और विस्मय से
खुद को छुड़ाकर
ख़ुशी और उमंग
ह्रदय को थपथपा कर
कुछ और ही
कहना चाह रही हो...
जैसे कोई
शीतल-सा जल-कण
छोटा-छोटा मोती बन कर
बरस रहा हो..
सच में
बिन मौसम ही
एक आस-फूल खिला है
तो क्यों न ?
सबको मिलकर
उसे ऐसे खिलाना है कि
वह बस
आकाश-फूल न बनकर
हमेशा के लिए
उजास-फूल बन जाए..
इसके लिए
थोड़ा आगे बढ़कर
क्यों न हम ?
कम-से-कम
अपने-अपने कीचड़ में
अपना-अपना
एक कमल-फूल खिलाएँ
और विकसित होकर
खुद महके
औरों को भी महकाएँ .

18 comments:

  1. अपना कीचड़
    कहाँ दिखता है खुद को
    दूसरे का कीचड़
    जरूर कहीं होता है
    उसमें कमल
    खिलाने को ही
    हर कोई
    कुछ ना कुछ
    कह ही लेता है :)

    बहुत सूंदर रचना ।

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  2. इधर खिला वो उधर खिला वो, महक गया, हां महक गया। कमलापति का स्‍वागत है।

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  3. सुन्दर भविष्य की आशा ले कर प्रयत्न करना भी प्रसन्नता पाना है ..

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  4. खुद को महकने का प्रयास करें तो देश खुद-ब-खुद महक उठेगा...

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  5. आओ एक कमल खिलाएँ अपने कीचड़ मे :) बहतरीन !! सूपर्ब !!

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  6. बहुत सुन्दर.....

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  7. प्रासंगिक रचना..और यकीनन देश में खिले कमल से ज्यादा अपने मन में खिलने वाला कमल ही जीवन को साकार कर सकता हैं...

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  8. है मगर उम्मीद यही कि वो सुबह कभी तो आएगी...
    सुंदर रचना...शुभकामनाएँ...

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  9. आह्वान अच्छा है और इसके लिए शुभकामनायें हैं.

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  10. अच्छी शुरुआत का इशारा ... खुद ही महकना होगा ... कमल बनना होगा ...

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  11. एक बादल
    ऐसे घिर आया है
    कि आँखों में
    भर आया है
    वाह , बहुत खूब। बहुत सुन्दर रचना. बहुत बहुत बधाई और आभार

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  12. वाह बहुत सुंदर ।

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  13. हाँ, समय भी तो यही गीत गा रहा है. आखिर शुरुआत करनेवाला ही तो अंत तक याद किया जाएगा.

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  14. सशक्त सुंदर भाव ...!!

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  15. राजनीतिक वातावरण को छू कर अंतःकरण के कमल खिलाने के भाव तक ले जाती कविता. बहुत खूब.

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  16. सुंदर भावाव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको !

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  17. सुशील कुमार जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ।

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