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Sunday, July 14, 2013

मैं भी........


तुम कुछ भी कहो या करो
मैंने अबतक बस इतना ही जाना है
कि अस्तित्व के दो छोर हैं हम
और तुम मुझे लुढ़का रहे हो
किसी ऐसे ढ़लान पर
जो कि अनजाना है....

हो न हो कहीं किसी घाटी तले
तुम्हारा ही कोई ठीकाना हो
जहाँ ले जाकर मुझे
मेरा ही शिखर दिखाना हो
ये मानकर मैं कितना भरूँ खुद को ?

मैं भी जानती हूँ कि
मेरा कितना ही खाली खाना है
हो सकता है कि
ये लालायित लालित्य का
कोई लोकातीत ताना-बना हो
पर ऐसे अतृप्त अदेखा सच को
मैंने अबतक नहीं माना है...

इसलिए रहने दो
अपने स्वर्गीय स्नेहित स्पर्शन को
रहने दो सारी दिव्य दृप्त दर्शन को
जो मेरी इस छोटी सी समझ से बाहर है..

मैं भी बस अपनी कहना चाहती हूँ
कि मेरे लिए तो प्रिय है
चौंधियाया हुआ सुखों का आकर्षण
मर्त्य इच्छाओं का घनिष्ठ घर्षण
और उससे उत्पन्न दुःख-ताल के
उन्माद की गतियों के बीच
मैं भी झूमकर नाचना चाहती हूँ...

ह्रदय पर हथौड़े सी पड़ती
हर चोटों पर मुस्कुराना चाहती हूँ...
हर छलनामय क्षितिज के छंदों पर
छुनन-मुनन कर गुनगुनाना चाहती हूँ
और आखिरी साँस तक
बिना रुके पन्ने-पन्ने पर खुद को
लिख जाना चाहती हूँ ....

और तुम !
तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .


34 comments:

  1. सुन्दर भाव पूर्ण रचना....

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  2. हर शब्द के हजार मायने.....अंतर्मन जब पिघलता है तो दैवीय भावों से सजी पोस्ट पढ़ने को मिलती है......

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  3. तुम कुछ भी कहो या करो
    मैंने अबतक बस इतना ही जाना है
    कि अस्तित्व के दो छोर हैं हम
    और तुम मुझे लुढ़का रहे हो
    किसी ऐसे ढ़लान पर
    जो कि अनजाना है....

    शानदार रचना, बेहद खूबसूरत बिंब लिये हैं आपने. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. आज तो कुछ उलझ गयी आपकी कविता में....
    लगा कि स्कूल में जैसे टीचर समझाती थीं वैसे आप इसे समझा भी दें...
    फिर भी जितना समझी उतना आनंद ले ही लिया.


    अनु

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  5. ह्रदय पर हथौड़े सी पड़ती
    हर चोटों पर मुस्कुराना चाहती हूँ...
    हर छलनामय क्षितिज के छंदों पर
    छुनन-मुनन कर गुनगुनाना चाहती हूँ

    बहुत सुंदर भाव ... अविचलित हो कर अपनी ख़्वाहिशों के साथ ज़िंदगी गुज़रती जाये यही कामना है ।

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  6. नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
    बहुत ही सारगर्भित रचना ......

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  7. मैं भी बस अपनी कहना चाहती हूँ
    कि मेरे लिए तो प्रिय है
    चौंधियाया हुआ सुखों का आकर्षण
    मर्त्य इच्छाओं का घनिष्ठ घर्षण
    और उससे उत्पन्न दुःख-ताल के
    उन्माद की गतियों के बीच
    मैं भी झूमकर नाचना चाहती हूँ...
    very nice

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  8. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  9. बहुत खूब,सुंदर

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  10. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  11. नश्‍वरता और संघर्ष के क्‍ल्‍ोशों के बीच जो गहन दर्शन उभरता है, उसकी अभीष्‍ट अभिव्‍यक्ति है यह कविता।

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  12. अमृता जी, बहुत सुंदर प्रार्थना है यह...पर विचलन ही तो शब्दों को जन्म देता है...

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  13. बहुत सुंदर रचना...भावों को बड़ी खूबसूरती से प्रकट कर दिया अमृता जी
    आपने....साभार....

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  14. वाह!!
    यूँ काँपते हुए जीने के भी अपने मायने हैं... फिर टूट कर गिर जाने के भी...

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  15. जीने,लिखने,मुस्कुराने और संघर्षों में अविचल बने रहने का निश्चय नदी के प्रवाह की तरह बहते चले जाने की कहानी कहता है. इसके साथ-साथ तमाम अनदेखे आकर्षणों से अपनी स्वस्थ असहमति जताते हुए, जीवन की तरफ झुकाव की बात भी कहता है. बहुत-बहुत शुक्रिया सुंदर कविता के लिए.

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  16. पर मैं भी
    नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .!!

    वाह अमृता जी ....स्वयं पर अटल विश्वास से भरी ,प्रभावशाली सुन्दर रचना ....!!

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  17. और तुम !
    तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
    मेरे आवेग और आक्रोश को
    निरावृत निर्वात में
    निखारते रहना है - निखारो
    पर मैं भी
    नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .

    आपकी रचना धर्मिता और भावों के सम्प्रेषण का कायल हूँ बेहतरीन

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  18. बहुत सुंदर रचना..

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  19. गहरे आत्म-संधान के बाद ही ऐसी कविता उपजती है. शायद वही सच्चा हौसला है जिसमे हम उन आकर्षण के सतत प्रघातों के बावजूद अपना संतुलन और अटूट आत्मविश्वास रख पाते हैं तथा अपने अपने कर्तव्यों का निर्बाध निर्वहन कर पाते हैं. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.

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  20. प्रभावशाली सुन्दर रचना ................अमृता जी

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  21. पर इन ख्वाहिशों के होते हुए भी अविचलित रहना ... प्रेम होते हुए भी अविचलित रहना ... पर क्यों ...

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  22. अस्तित्व के दो छोर भले ही कभी न मिले पर एक दुसरे को नकार नहीं सकते.........अत्यंत सुन्दर ।

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  23. और तुम !
    तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
    मेरे आवेग और आक्रोश को
    निरावृत निर्वात में
    निखारते रहना है - निखारो
    पर मैं भी
    नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .

    ....बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  24. जीवन में जब गहरी अनुभूतियों का असर सृजनशील होने लगे
    तब ऐसी अदभुत रचना का लिखा जाना संभव होता है--------
    गजब की कविता
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बधाई

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  25. हो न हो कहीं किसी घाटी तले
    तुम्हारा ही कोई ठीकाना हो
    जहाँ ले जाकर मुझे
    मेरा ही शिखर दिखाना हो
    ये मानकर मैं कितना भरूँ खुद को ?
    .....

    पर मैं भी
    नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .

    सन्देश भाषा सभी कुछ अद्वितीय !!!!

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  26. रहने दो सारी दिव्य दृप्त दर्शन को

    very nice

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  27. वाह बहुत खूब ...शब्द रचना बेहद खूबसूरत

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  28. बधाई अमृताजी, इतनी गहन चिन्तनपूर्ण भावों को लिये सुन्दर रचना के लिए । मन को छू गयी । शुभकामनाएँ ।

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  29. संकल्प बना रहे , कवितायेँ रहेंगी और जीवन भी !

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  30. और तुम !
    तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
    मेरे आवेग और आक्रोश को
    निरावृत निर्वात में
    निखारते रहना है - निखारो
    पर मैं भी
    नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
    तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी
    गहन भाव लिये अनुपम अभिव्‍यक्ति

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  31. इन पहाड़ के दो छोरों के बीच घाटी पल्लवित होती है।

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