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Sunday, July 28, 2013

चुपचाप ही सही ....




आँधियाँ तो चल रही है
चुपचाप ही सही
बोझिल-सी , डगमगाती-सी
बिना सन सन सन के
तुम्हारे ही बंद दिशाओं में...

प्राणों में पुंजित पीर है
नयन में नेही नीर है
हिम-दंश सहता ये ह्रदय-हवि
अभी तक जमा नहीं है
साँसों का गीत भी थमा नहीं है...
जो तुम्हारे सागर पर
उत्पीड़ित धूप-सा जलता रहेगा
अपने काँधे पर तुम जाल फैलाए रहो
तो भी तुम्हारे सतह पर पिघलता रहेगा....

आँधियाँ कल जो इधर आ रही थी
अब भी उड़ती है , फड़फड़ाती है
तुम्हारे ही बंद आकाश में
कबतक रोके रहोगे उसे प्रस्तर-पाश में ?

चाहो तो मना कर दो
उन पत्तियों को कि चुटकियाँ न बजाये
उन डालियों को कि चुटकियाँ न ले
और उन तरु-वृंदों को कि चुटकियों में न उड़ाये
आँधियों के इंगित को
इंगित के उन अंत:स्वर को
जो मन्त्र-भेद करता है ...

आँधियाँ है बहती रहेंगी
चुपचाप ही सही
तुम्हारा दिया पीर भी सहती रहेंगी
चुपचाप ही सही
जिसकी पड़पड़ाहट सुन कर
चिड़ियों से चुक-चुक , चिक-चिक चहकेंगी ही
उन मुरझाई कलियों से
किलक कर कुसुमावलि फूटेंगी ही....

तुम लाख उन्हें रोकने की ठानो
या उनके इंगित को मानो न मानो
पर चुपचाप ही सही
आँधियों का धर्म ही है बहना
जो जानती नहीं है कभी थमना...

यदि थम गयी तो स्वयं ही हाँफने लगेंगी
और उस अंतगति की उपकल्पना मात्र से ही
ये पूरी सृष्टि कलप कर काँपने लगेगी .



Tuesday, July 23, 2013

सावन है आया अब चले आओ ....





                   आज कोई भी बहाना न बनाओ
                   पुकारा है तुम्हें, अब चले आओ

                     तप्त सूरज  सागर में समाये
                     गो-रज से गोधूलि डगमगाए
                     एक दूरी से विहग लौट आये
                    दीप भी देहरी पे निकल आये

                    जब विकल नेह है अनुराग है
                   क्यों शलभ से विमुख आग है ?

                   आज तारों में भी कुछ तनी है
                    चाँद की किस से यूँ ठनी है ?
                    न बादलों की बात ही बनी है
                   नदियाँ भी चलती अनमनी है

                    जब अपने राह चलती चाह है
                    क्यों भ्रम में भटकती आह है ?

                   बैरिन बिंदिया भी विरहन गाये
                    सुन , चूड़ियाँ भी चुप्पी लगाए
                    मेंहदी पर न  वह रंग ही आये
                    आंसू में ही  महावर धुल जाए

                  जब प्राण से प्राण मोल है लिया
                  क्यों यह व्यथा  अनमोल दिया ?

                   साँसें सिमटी जाती सुनसान में
                   धड़कन धूल-सी उड़ी वितान में
                   ह्रदय कुछ कहता है यूँ कान में
                   आँखें घूम जाती है अनजान में

                  जब आस पर ही तो विश्वास है
                  क्यों चातक से  चूकी प्यास है ?

                  अब मेघ घिर रहे हैं  चले आओ
                  फूल खिल भर रहे हैं चले आओ
                  सब झूले तन गये हैं चले आओ
                  देखो!सावन है आया चले आओ

                  जब विवश-सा नेह है अनुराग है
                   तो मिलन से ही बुझती आग है

                  पुकारा है तुम्हें, अब चले आओ
                  आज कोई भी बहाना न बनाओ .



Saturday, July 20, 2013

निद्रा है टूटेगी ....

                   

                    निद्रा है टूटेगी , तीव्र घात करो
                    कोमल अंगों पर वज्राघात करो

                    पर उससे पहले तुम तो जागो
                   ऐसे कंबल ओढ़ कर मत भागो

                     जब चारो ओर आग लगी है
                    आलोड़नों से हर प्राण ठगी है

                    झकोरों की चपेटें हैं घनघोर
                    खोजो! उसी में छिपा है भोर

                 उस भोर से चिनगियाँ छिटकाओ
                  हर बुझी मशाल को फिर जलाओ

                   जब बुझी मशाल पुन: जलती है
                  तब रुढियों की हड्डियां गलती है

                अंधविश्वास भस्मासुर बन जाता है
                 स्वयं अपनी आँच में जल जाता है

                किया जा सकता है तभी बहुत कुछ
                 यहीं तय करो तुम अभी सब कुछ

                आशा-ही-आशा में ओंठ न सुखाओ
               कमजोरी कुचल कर अलख जगाओ

                समय की शंकाओं पर विवाद करो
                 समाधान सोच कर नव नाद करो

                 स्व उत्थान से ही नवयुग आता है
                 औ' कल्पित स्वर्ग सच हो जाता है

                   निद्रा है टूटेगी , तीव्र घात करो
                   कोमल अंगों पर वज्राघात करो .

Wednesday, July 17, 2013

मिड डे मील से बच्चों की मौत पर ....

ओ ! आसमान के रखवाले
तुम्हारे मौसम तक
जमीन को किया है
तुम्हारे ईमान के हवाले...

चाहे तो तू
जमीन का खून पी ले
या उसे पूरा ही खा ले
पर उनकी बददुआ
तुम तक ही जायेगी
और तुम्हें जब
जख्म मिलेगा तो
कोई भी मरहम-पट्टी
तुम्हारे काम न आएगी....

थोड़ी शर्म कर !
अपनी जमीर की सुन !
इन्सानियत के नाते ही सही
तू उनकी बददुआ ना ले...

याद रख !
जमीन जब फटेगी तो
तुझे ही निगल जायेगी
तब उस खिचड़ी की याद
तुम्हें बहुत रूलायेगी
जिससे ललचाकर
तुम आसमान बन जाते हो
और भरे मौसम में भी
जमीन पर सिर्फ
सूखा ही उगाते हो....

ऐसी पढ़ाई से तो
वो अनपढ़ भला
जो खिचड़ी न खा कर
अपने घास-पात पर है पला...

अब जाओ !
उन सूनी गोद को
कुछ मुआवजा से भर दो
अगले मौसम की भी
तैयारी करनी है तो
हर लाश पर
एक झाड़ूमार नौकरी के साथ
खून टपकाता हुआ
एक घर दो .

Sunday, July 14, 2013

मैं भी........


तुम कुछ भी कहो या करो
मैंने अबतक बस इतना ही जाना है
कि अस्तित्व के दो छोर हैं हम
और तुम मुझे लुढ़का रहे हो
किसी ऐसे ढ़लान पर
जो कि अनजाना है....

हो न हो कहीं किसी घाटी तले
तुम्हारा ही कोई ठीकाना हो
जहाँ ले जाकर मुझे
मेरा ही शिखर दिखाना हो
ये मानकर मैं कितना भरूँ खुद को ?

मैं भी जानती हूँ कि
मेरा कितना ही खाली खाना है
हो सकता है कि
ये लालायित लालित्य का
कोई लोकातीत ताना-बना हो
पर ऐसे अतृप्त अदेखा सच को
मैंने अबतक नहीं माना है...

इसलिए रहने दो
अपने स्वर्गीय स्नेहित स्पर्शन को
रहने दो सारी दिव्य दृप्त दर्शन को
जो मेरी इस छोटी सी समझ से बाहर है..

मैं भी बस अपनी कहना चाहती हूँ
कि मेरे लिए तो प्रिय है
चौंधियाया हुआ सुखों का आकर्षण
मर्त्य इच्छाओं का घनिष्ठ घर्षण
और उससे उत्पन्न दुःख-ताल के
उन्माद की गतियों के बीच
मैं भी झूमकर नाचना चाहती हूँ...

ह्रदय पर हथौड़े सी पड़ती
हर चोटों पर मुस्कुराना चाहती हूँ...
हर छलनामय क्षितिज के छंदों पर
छुनन-मुनन कर गुनगुनाना चाहती हूँ
और आखिरी साँस तक
बिना रुके पन्ने-पन्ने पर खुद को
लिख जाना चाहती हूँ ....

और तुम !
तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .


Tuesday, July 9, 2013

सुमन-शय्या और मालपुआ...

'' सुमन-शय्या पर लेटे-लेटे
मालपुआ चाभने वालों के
श्री मुख से केवल
मेवा-मिष्ठान ही झड़ता है ''
भला बताइए तो
इसकी व्याख्या का प्रसंग निर्देश
अनिवार्य अंग है या नहीं ?
साथ ही इसके कार्य-कारण का
पुर्न-पुर्न व्याख्या करने हेतु
हममें-आपमें अब भी वो उमंग है या नहीं?

ये प्रश्न हमें हर प्रसंग में
स्वयं से करते रहना चाहिए
व सत्य से विमुख हुए बिना
स्वीकार भी करते रहना चाहिए कि
हमसे-आपसे समीक्षित
संदर्भगत संक्षिप्त भूमिका भी
उसके मूलभाव से कोसों दूर रहती है
और हम देखते रहते हैं कि
हमारी बेबस व्याख्या
सुमन-शय्या और मालपुए के
व्यूह में ही कैसे उलझती है ....

तब तो बस यही कहा जा सकता है कि
अपने कर्मक्षेत्र में बिन वंशी के हम
ता-ता थय्या करने वाले क्या जाने
वो सुमन-शय्या कैसे सजता है ?
और सिर के ऊपर बहते अभाव में
बस कलम चला-चला कर क्या माने
कि वो मालपुआ कैसा दिखता है ?

आइये ! हम इन बड़ी-बड़ी बातों में
अपने लिए छोटी बात छाँट लेते हैं
मज़बूरी का नाम कहीं शब्द न हो जाए
इसलिए ये छोटी बात यूँ ही बाँट लेते हैं-
कि हम अपना पसीना भी उनपर बहाए
और शब्दों को भी उनके लिए बरगलाये
पर वे खूब फले-फूले
व अपने आस-पास को भी फुलाए ...
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
कि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?

वैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
उनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
हाँ! आप अपनी जाने
कि आपके अन्दर क्या-क्या चलता है
पर उन सुमन-शय्या और मालपुए को
सोच-सोच कर मेरे मुँह में तो
इस किल्लती-युग में भी
दस-बीस गैलन पानी आ भरता है .