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Sunday, April 28, 2013

सो जाओ चुपचाप ...


कुछ नहीं
हवा का झोंका है
सो जाओ चुपचाप !
भारी मन है तो
बत्तियां बुझाकर
कर लो
जी भर विलाप !
नींद नहीं आ रही ?
तो करते रहो अपने
शपित शब्दों से संलाप...
जाने भी दो
हाँ! जिसके पंजे में
जो पड़ आता है  
उसी का गला घोंटने में
वह अड़ जाता है
व दर्द का दौरा
ये हमारा हिमवत ह्रदय
पिघल कर भी
सह जाता है..
कोई हर्जा नहीं
कि रक्तचाप
थोड़ा बढ़ा जाता है
और खून को
खौला-खौला कर
लज्जा - घृणा में
उड़ा जाता है...
कोई फिक्र नहीं
सब ठीक हो जाएगा
कल नहीं तो अगले महीने
नहीं तो अगले साल..
हाँ ! कभी न कभी
सब ठीक हो जाएगा
देर है पर अंधेर नहीं..
कुछ नहीं है ये
बस हवा का झोंका है
जो कहीं न कहीं
हर मिनट बहता रहता है
और पतित पंजों से
पंखनुचा कर
संतप्त संघात को
सहता रहता है ...
अब तो
हर अगले मिनट की
आँखों पर
काली पट्टी चढ़ाकर
लड़खड़ाती जीभ को
समझा - बुझाकर
कहना पड़ता है कि -
इसपर इतना
मत करो
प्रमथ प्रलाप
कुछ नहीं
बस हवा का झोंका है
सो जाओ चुपचाप !


37 comments:

  1. बहुत सार्थक अमृता जी .....संवेदनशून्य तो होते ही जा रहे है हम..
    शब्द भी मोन हो चले अब .....

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  2. बहुत गहरा प्रहार करती रचना

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  3. संवेदन व्‍यक्तित्‍व की विवशता
    को कवित्‍व के गूढ़ धरातल पर विवेचित करते आपके शब्‍द परिस्थितिजन्‍य पीड़ाओं हेतु संजीवनी बन रहे हैं।

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    1. और हां प्रत्‍युत्‍तरों हेतु धन्‍यवाद।

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    2. यह कविता सन्‍दर्भ एवं वर्णन दोनों अभियोजनों में सरलता से ग्राह्य है, विशेषकर पाठकों के लिए। जोड़ का तोड़ और तोड़ का समुचित मोड़ प्रस्‍तुत करती कविता।

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  4. संवेदनशील विचार .... पर मुंह मोड़ मोड़ लेने सच नहीं बदलता, यह भी समझना होगा

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  5. यही तो विवशता है.. बहुत सार्थक अभिव्यक्ति अमृता जी ....

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  6. बहुत ही सुन्दर है ये कविता

    आज का दर्द

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  7. बेकसी बेबसी का आलम और दिल को दिलासा रखने का उपक्रम

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  8. आँखों पर
    काली पट्टी चढ़ाकर
    लड़खड़ाती जीभ को
    समझा - बुझाकर
    कहना पड़ता है कि -
    इसपर इतना
    मत करो
    प्रमथ प्रलाप
    कुछ नहीं
    बस हवा का झोंका है
    सो जाओ चुपचाप !

    बेबस मन के अंतर्कथा का सांगोपांग वर्णन

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  9. वाह! लाजवाब लेखन | आनंदमय और बहुत ही सुन्दर, सुखद अभिव्यक्ति विचारों की | एक दम सटीक बात के आजकल संवेदनाएं सभी के अन्दर दम तोड़ चुकी हैं और यही एक सवाल बचा है बस | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  10. कोई उस दुःख के भीतर नहीं है जहां आग फ़ैल रही है ....कोई वहां भी नहीं है जहाँ से फेंकी जा रही है माचिस की तीली ...सब के सब झुनझुना बने हुए हैं ...

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  11. समाज की भूलने की प्रवृति पर कटाक्ष . अति सुन्दर .

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  12. बहुत ही बेहतरीन सुन्दर कविता.

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  13. जिंदगी में एक नही हजारों मुश्किले आती है और ऐसी मुश्किलों को अगर कोई हवा झौका मान सकुन के साथ जी रहा है तो भाई इससे बेहतर और क्या है।

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  14. बेहद गहन भाव लिए सशक्‍त अभिव्‍यक्ति
    घुटती है सिसकती है
    जाने कितना सिहरती है वो
    शब्‍द-शब्‍द जब
    कलम की नोक पर उतरती है कविता

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  15. कोई फिक्र नहीं
    सब ठीक हो जाएगा
    कल नहीं तो अगले महीने
    नहीं तो अगले साल..
    हाँ ! कभी न कभी
    सब ठीक हो जाएगा
    बेबसी से होने वाली व्याकुलता स्पष्ट दिखाई दे रही है शब्दों में.. गहन भाव...

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  16. नहीं सोने से हवा रूक नहीं जाएगी
    पत्तों का खड़खड़ाना बंद नहीं होगा
    सो जाने से सपने एक उम्मीद देंगे
    कोई नया रास्ता हवाओं से बहकर मिल ही जायेगा

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  17. मन को आंदोलित करती घटनाओं के जंगल में यही कहकर संतोष करना पड़ता है- कुछ नहीं हवा का झोंका है।

    बहुत अच्छी कविता।

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  18. मुझे तो एक बहुत ही सुंदर और गूढ़ व्यंग जैसा प्रतीति हुआ बधाई

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  19. बहुत बढ़िया प्रस्तुति प्रासंगिक अर्थ लिए .अधुनातन सन्दर्भ लिए .

    इसपर इतना
    मत करो
    प्रमथ प्रलाप
    कुछ नहीं
    बस हवा का झोंका है
    सो जाओ चुपचाप !

    परिस्थिति है औरों की पैदा की हुई गुजर जायेगी ,रात फिर संवर जायेगी .

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  20. इस संतोष से ही देश में प्रजा तंत्र चल रहा है धांधली में पल रहा है -हाँ संतोष ही सबसे बड़ा धन है ,जेहि विधि राखे राम आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा .ये दिन गुजरा है वह भी गुजर जाएगा -ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए ,न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे ,ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए .

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  21. यथा स्थितिवाद के विद्रूप का चेहरा ,पंख नुची आत्मा से संवाद करती है यह कविता .

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  22. परिस्थिति है औरों की पैदा की हुई गुजर जायेगी ,रात फिर संवर जायेगी .

    इस संतोष से ही देश में प्रजा तंत्र चल रहा है धांधली में पल रहा है -हाँ संतोष ही सबसे बड़ा धन है ,जेहि विधि राखे राम आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा .ये दिन गुजरा है वह भी गुजर जाएगा -ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए ,न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे ,ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए .

    यथा स्थितिवाद के विद्रूप का चेहरा ,पंख नुची आत्मा से संवाद करती है यह कविता .इस संतोष से ही यथा स्थति वाद का पोषण हो रहा है .तिहाड़ आबाद हो रहा है जेलों के तीर्थ रूप में .

    ram ram bhai
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    सोमवार, 29 अप्रैल 2013
    सेहतनामा

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  23. वाह, गहन......
    मानों बेबसी के पिंजरे में सांत्वना के दाने चुगती व्यथा की चिड़िया............

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  24. वाह, गहन......
    मानों बेबसी के पिंजरे में सांत्वना के दाने चुगती व्यथा की चिड़िया............

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  25. इसपर इतना
    मत करो
    प्रमथ प्रलाप
    कुछ नहीं
    बस हवा का झोंका है
    सो जाओ चुपचाप !

    धैर्य और सहनशीलता ...जीवन का मार्ग बदलने में सक्षम हैं ....निश्चय ही ....
    गहन रचना ...

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  26. दर्द को देखकर भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुँह छुपा लेना या कबूतर की तरह आँखें मूंद लेना..कुछ नहीं होने वाला इससे..पीड़ा को उसकी आखिरी बूंद तक उतर जाने देना होगा भीतर, उससे पहले मुक्ति नहीं..गहन भाव अमृताजी, आभार !

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  27. सो जाओ चुपचाप
    मन की पीड़ाओं को कब तक रखा जायेगा
    सकारात्मक सोच की रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?

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  28. we go to bed with so many things in our minds..
    some times with disappointments...insomnia kicks in.. but we gotta get back up in morning anyway... as life carries on..

    beautiful expressions..
    loved the underlying optimism

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  29. Amrita,

    SAARI REH GAYEE KAVITAAYEIN PARHI. EK SE EK BARH KE HAIN SAB. HOLI WALI OR KAVITA GARH DOONGI BAHUT ACHCHHI LAGIN. KAFI KAVITAYEIN THODI UDAAS KARNE WALI HAIN, KOI KHAS BAAT TO NAHIN?

    Take care

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  30. सशक्त प्रहार

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  31. बाद-ऐ-सबा, बाद-ऐ-समूम, बाद-ऐ-तुंद.. इस सब के तजुर्बात के बाद हवा कैसी भी हो...मन तो यही कहता है..तुम्हारा काम बहना है ..तुम बह के निकल जाओ...रात भी गुज़र जाती है.....और मन यही सोचता रह जाता है जैसा की जानिसार अख्तर ने लिखा था...'सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतज़ार कर'...

    बेहद खूबसूरत भाव संयोजन और अभिव्यक्ति.

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  32. बहुत बहुत गहन और उम्दा......जख्म पर रुई के फाहों से से काम नहीं बनता........बेहतरीन रचना ।

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