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Sunday, March 31, 2013

कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?


                   सब ऋतुओं से गुजर कर
                  तुम ऐसे मेरे करीब आना
                  कि अपने मन के पके सारे
                  धूप-छाँव को मुझे दे जाना

                 कुछ भार तुम्हारा जाए उतर
                 कुछ तो हलका तुम हो जाओ
                  और मेरे उर के मधुबन में
                 अमृत घन बनकर खो जाओ

                  इस चितवन पथ से आकर
                 पीछे का कोई राह न रखना
                  रचे स्वप्न का सुख यहीं है
                आगे की कोई चाह न रखना

                 अक्षम प्रेम का तो आभास यही
                 आओ!अति यत्न से संचित करे
                  जीवन- स्वर के पाँव को हम
                 नुपुर बन कर ऐसे गुंजित करे

               पदचाप पुलककर नृत्य बन जाए
               रुनक- झुनक कर रोम- रोम में
                 देखो! है कैसे नटराज उजागर
                अपने इस धरा से उस व्योम में

                 हरएक अविराम गति उमंग की
               उससे छिटक-छिटक कर आती है
                तरंग- तरंग में तिर- तिर कर
                 बस उसी रंग में रंग जाती है

                 कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?
                 सुनो! पूछता है यही प्रतिक्षण
             फिर मैं उत्कंठिता,तुझे क्यों न बुलाऊं ?
                उत्प्रेरित जो है ये उर्मिल आलिंगन .

24 comments:

  1. उत्प्रेरित जो है ये उर्मिल आलिंगन...सुन्‍दर।

    इस कविता के सन्‍दर्भ में....
    जो भी होगा मिलन का अधिकारी,
    वह तो है शत-शत सौभाग्‍यकारी

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  2. रुनक-झुनक सी ..प्रेम पगी ,खूबसूरत अमृतमयी उज्जवल रचना .....
    बहुत सुन्दर भाव अमृता जी ....

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  3. बहुत खूबसूरत प्रेमाभिव्यक्ति. हर पंक्ति गहरा प्रेम समाये हुए है.

    इस चितवन पथ से आकर
    पीछे का कोई राह न रखना
    रचे स्वप्न का सुख यहीं है
    आगे की कोई चाह न रखना

    इस मनुहार/आदेश में प्रेम की खूबसूरती अपने चरम पर है.

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  4. मूर्खता दिवस की मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (01-04-2013) के चर्चा मंच-1181 पर भी होगी!
    सूचनार्थ ...सादर..!

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  5. वातावरण आमन्त्रण दे रहा है, उन्मुक्त हो समा जाने के लिये।

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  6. ...और तुम मुझे दे जाना ईश्वर की बनायी हुई प्रेम की सभी रस्में ...

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  7. सुन्दर प्रस्तुति...

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  8. कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?
    सुनो! पूछता है यही प्रतिक्षण
    फिर मैं उत्कंठिता,तुझे क्यों न बुलाऊं ?
    उत्प्रेरित जो है ये उर्मिल आलिंगन

    सुंदर प्रस्तुति

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी

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  9. आहा.... कितने सुंदर प्रेममयी भाव

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  10. चिर उत्कंठिता से सद्य तृप्ता की राह प्रशस्त हो!
    यही भद्र कामना है -बहुत गहन भाव संप्रेषित करती प्रभावपूर्ण ,यादगार रचना !
    श्रृंगार आपके यथेष्ट है -सिद्धहस्तता है आपकी .स्थायी और संचारी भाव है आपका !
    और यही मुझे प्रिय भी है ,यही बनी रहे! आपका आध्यात्म मुझे विषण्ण कर जाता है

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  11. इस चितवन पथ से आकर
    पीछे का कोई राह न रखना
    रचे स्वप्न का सुख यहीं है
    आगे की कोई चाह न रखना

    वर्तमान में रहने का राज जो जान ले..वही प्रेमी हो सकता है..

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  12. ह्रदय को छू गयी सुन्दर प्रस्तुति...

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  13. मन को छूते भाव ... अनुपम प्रस्‍तुति

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  14. आत्मिक मिलन आत्म परमात्म प्रेम तक की यात्रा देह के माध्यम से देह का अतिक्रमण कर गई है इस रचना में .व्यष्टि से समष्टि तक की यात्रा यही है प्रेम मिलन की आतुरता .

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  15. सुन्दर शब्दों में रची बसी प्रेमातुर मिलन कविता ।

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  16. वाह...
    बेहद सुंदर !!

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  17. बहुत सुन्दर और मन भावन अभिव्यक्ति...
    अक्षम प्रेम का तो आभास यही
    आओ!अति यत्न से संचित करे
    जीवन- स्वर के पाँव को हम
    नुपुर बन कर ऐसे गुंजित करे

    बधाई और शुभकामनाएँ.

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  18. bahut sundar bhav , sundar abhivyakti .......geet ka pravah bina ruke hi kab samapt ho gaya .....bas behad sundar geet amrata ji , badhai .

    http://sapne-shashi.blogspot.com

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  19. बहुत सुन्दर भाव

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