Social:

Sunday, March 31, 2013

कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?


                   सब ऋतुओं से गुजर कर
                  तुम ऐसे मेरे करीब आना
                  कि अपने मन के पके सारे
                  धूप-छाँव को मुझे दे जाना

                 कुछ भार तुम्हारा जाए उतर
                 कुछ तो हलका तुम हो जाओ
                  और मेरे उर के मधुबन में
                 अमृत घन बनकर खो जाओ

                  इस चितवन पथ से आकर
                 पीछे का कोई राह न रखना
                  रचे स्वप्न का सुख यहीं है
                आगे की कोई चाह न रखना

                 अक्षम प्रेम का तो आभास यही
                 आओ!अति यत्न से संचित करे
                  जीवन- स्वर के पाँव को हम
                 नुपुर बन कर ऐसे गुंजित करे

               पदचाप पुलककर नृत्य बन जाए
               रुनक- झुनक कर रोम- रोम में
                 देखो! है कैसे नटराज उजागर
                अपने इस धरा से उस व्योम में

                 हरएक अविराम गति उमंग की
               उससे छिटक-छिटक कर आती है
                तरंग- तरंग में तिर- तिर कर
                 बस उसी रंग में रंग जाती है

                 कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?
                 सुनो! पूछता है यही प्रतिक्षण
             फिर मैं उत्कंठिता,तुझे क्यों न बुलाऊं ?
                उत्प्रेरित जो है ये उर्मिल आलिंगन .

Wednesday, March 20, 2013

तुमसे होली खेलना है ....


पिचकारी को कड़ाही में तला
बाल्टी में मालपुए को घोल दिया
गुब्बारे पर दही-मसाला छिड़ककर
बड़े में सब रंग भर दिया ....

अबकी बार जमकर जो
तुमसे होली खेलना है .....

ठंडई से फर्श को धो दिया
गुलाल से मिठाई बना दिया
मेवा से झालर टांग कर
गुझिया से सारा घर सजाया ....

अबकी बार जमकर जो
तुमसे होली खेलना है ....

जानती हूँ
सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है
और सही करने के चक्कर में
कॉफी में सुबह को उबाल दिया
धूप का पकौड़ा बना कर
शाम को चटनी के लिए पीसा
और गिलास में रात को भर दिया ....

मानती हूँ
सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है
पर अबकी बार जमकर जो
तुमसे होली खेलना है .

Saturday, March 16, 2013

पर मिट्टी नहीं है ...


आओ !
आकाश में
उड़ती हुई आँधियों !
बादलों जोर से गरजो !
बिजलियों थोड़ा और कड़को !
मैं ललकारती हूँ तुम्हें
जितना बन पड़े
तुम उतना भड़को !
अब
मेरी मजबूती को
तुम्हें सहना होगा
यदि नहीं सह सकते तो
अपनी राह में बहना होगा ...
भले ही
मिट्टी से हुआ है
मेरा निर्माण
पर मिट्टी नहीं है
ये प्राण ...
अडिग हूँ
तुम्हें ही डिगा दूंगी
प्रज्वलित प्राण से
तुम्हें ही पिघला दूंगी ...
माना कि
तुम भी हो
विकट व्यवधान , पर
अब मुझसे चलता है
मेरे विधि का
हर एक विधान .

Tuesday, March 12, 2013

एक युगंकर बन जाने दो ...


अनुभूति से
शब्द तक की
यायावरी यात्रा में
यंत्रणा-व्यूह में ही
उलझ जाने वालों ...
पंक्तियों के मध्य बचे
खालीपन में भी
याचित यातना को
ठूंस-ठूंस कर भरने वालों ...
कभी किसी शाम
अपनी यातना-यंत्रणा को
समय के सटर-पटर से
बलात छीनो , ले जाओ
अपने ही श्मशान घाट पर ...
कलेजे पर पत्थर डालो
मंत्रोच्चार करो , मुखाग्नि दो
अपनी नदी में डुबकी लगाकर
जितना हो सके शुद्ध हो ...
ओ! मेज़ के कोरों पर
सिर रखकर रोने वालों
फिर समय से संवाद करके
उसी की गोद में सोने वालों ...
कबतक यूँ ही
समय से
संपीडक संवाद करोगे ?
अपने साँसों के अंतराल को
व्यर्थ सुग-सुग से भरोगे ?
छोड़ो भी ये सब और
अपने विचार-पत्थरों को
जैसे-तैसे तैर जाने दो
चिंतन-कगारों को आपस में
कैसे भी टकराने दो
और हर एक आवेग को
उफनकर उलझ जाने दो ...
ये यायावरी यात्रा है तो
दिशा-भ्रम होगा ही
इसलिए दिशा को भी
यूँ ही भटक जाने दो ...
यदि कहीं
मील के पत्थर मिले तो
आकुल-व्याकुल भावों को
जरा सा अटक जाने दो ...
ये अनुभूति की जो
कई-कई योजन की दूरियाँ है
ये बामन मन
लांघ जाना चाहता है
मत रोको!
उसे लांघ जाने दो और
अपनी यायावरी यात्रा को
जितना हो सके
एक युगंकर बन जाने दो .

Friday, March 8, 2013

रोक लेते हो जो तुम मुझे ...


रोक लेते हो जो तुम मुझे
विहगों के स्वर पर
सहसा अधरों से फूट पड़ते हैं
बेसुध रागों में निर्झर गान
पल झपते ही नव छंदों से
आह्लादित हो जाता है आसमान
मन मसोस कर प्रिया की गोद से
निकल आता है विजर विहान ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे
पंखुड़ियों के कर पर
परवश मदिर पराग उड़-उड़ कर
ह्रदय-कालिका को खुलकाता है
उस इन्द्रधनु से रोहित रंग उतर कर
सस्मित सौरभ से मिल जाता है
और मन-प्राणों में महक-महक कर
इक कस्तूरिया कुमुद खिल जाता है ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे
सागर की लहर पर
मेरे स्वप्नलोक के राजमहल में
मेरा इच्छित मंडप सज जाता है
शुभ आशीष बरस-बरस कर
एक स्वयंवर रचा जाता है
और वेदी के मंगल मन्त्रों से
भंवरों पर ही भांवर पर जाता है ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे
चन्द्रमा के डगर पर
इस सेज-सी बिछी रात पर
गगन ऐसे गिर सा जाता है
कि चंदराई सी चंदनिया चिलकती है
और पुलकित स्पर्श चमक जाता है
बस फैली-फैली चुनर देख कर
बेबस चाँद भी ठहर जाता है ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे
अपने ही पहर पर
नभगंगायें , नीहारिकाएं , नक्षत्र सभी
अपनी गति ही भूल जाते हैं
और मेरा पथ भी मोड़-मोड़ कर
बस तुम तक ही ले आते हैं
मैं भोली ,न समझूँ तब भी
मुझे , तेरा अभेद भेद ही समझाते है ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे
मेरे अगर-मगर पर
कण-कण में कुतूहली जगा कर
मुझसे कुछ आगे बढ़ जाता है
तुम जो भी न कहना चाहो
उस उस को भी वह पढ़ जाता है
ये सृष्टि अपना मुख ढक लेती है
और प्रेम उघड़-उघड़ जाता है ...

रोक लेते हो जो तुम मुझे ...

Tuesday, March 5, 2013

सुनवाई चल रही है ...


अर्थ है
तब तो अनर्थ है
जिसपर
व्याख्याओं की परतें हैं
और उन परतों की
कितनी ही व्याख्याएं हैं ...
कहीं शून्य डिग्री पर
उबलता-खौलता पानी है
तो कहीं बर्फ की जिद है
सौ डिग्री पर ही जमें रहने की ...
उँगलियों की सहनशीलता
गेस-पेपर को फाड़ कर
चिट-पुर्जियां बना रही है
तो कहीं बचा-खुचा सच
समझौतावादियों से
सांठ-गांठ में है
जहां वाद-प्रतिवाद
सुरक्षाकर्मी बने हैं ...
और तो और
सभी रडार से ही फ्यूज को
निकाल दिया गया है
उसी की टोह में
मिसाइल-ड्रोन भी हैं ...
खुला समझौता के तहत
खुले हाथों पर
कर्फ्यू लगा दिया गया है
और आत्मसमर्पण करके अर्थ
मुट्ठियों में बंद होकर
कुछ ज्यादा ही सुरक्षित हैं ...
तब तो
प्रतिबंधित नारों की
बंद कमरे में ही
सुनवाई चल रही है .

Friday, March 1, 2013

इक प्रेत बैठा है ...


इक प्रेत बैठा है
इस सजायाफ्ता सीने में
जैसे कोई
नायाब अंगूठी फंसी हो
किसी नामुनासिब नगीने में ...
बड़ी बेतकल्लुफी से वह
मुझे ही कहता है कि
बड़ा मजा है
फ़स्लेबहार सा ही
फैंटेसी में जीने में
व अपने अस्ल सूरत को
छिपाकर ऐसे रखा करो
किसी भी आफ़ताबी आईने में
कि रूमानियत ही रूमानियत
नजर आता रहे
हर एक कयास के करीने में ...
गर कभी वो नाख़ुशी जताए तो
अदब से ले जाओ
भंवर पड़े मँझधार में
और बिठा आओ
किसी डूबते सफीने में
फिर चुरट सुलगाओ
हुक्का गुड़गुड़ाओ
और अपनी तमन्नाओं में
विह्स्की या रम मिला कर
पूरी मस्ती से
लग जाओ पीने में ...
वो जो प्रेत है न
और भी क्या-क्या कह कर
वक्त-बेवक्त मुझे बहकाता है
कसम से बताते हुए मैं
लथपथ हूँ ठन्डे पसीने में ...
वैसे गौर फरमाया जाए तो
जब प्रेत ही बैठा है
इस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .