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Sunday, February 24, 2013

क्षणिकाएँ ...


धर्मिष्ठा ने
धरा पर धर दिया
योगस्थ यश को
धरा के समान ही
सागर सुखाती हुई
बनी रही धरोहर

     ***

धर्षिता ने
धूल को रोक लिया
अपने यश के घेरे में
धरा सींचती रही
एक यश-वट
सिद्ध होते अर्थों से

     ***

धरनी ने
ग्रह-गोचर चलने दिया
योगात्मक गति में
अपनी ग्रह-यात्रा को
स्थिर कर , करती रही
उसके लिए ग्रह-यज्ञ

     ***

धर्माभिमानिनी ने
अर्थ अपना सिद्ध किया
राहु-स्पर्श से
सिद्धांतहीन यश
ग्रहण मुक्त होकर
धरा पर बिखरा है

     ***

धन्या ने
धन गंवाया , धन्य किया
सिद्ध अर्थ के यश को
इसीलिए तो धरा पर
यशोधरा धरती है देह
अपने बुद्ध के लिए .



धर्मिष्ठा - धर्म पर स्थित रहने वाली
योगस्थ - योग में स्थित
धर्षिता - पराजित स्त्री
धरनी - हठी , जिद्दी
ग्रह-यज्ञ - ग्रहों को शांत करने के लिए किया जाने वाला यज्ञ
धर्माभिमानिनी - अपने धर्म पर अभिमान करने वाली
राहु-स्पर्श - कोई भी ग्रहण
धन्या - श्रेष्ठ कर्म करने वाली

Wednesday, February 20, 2013

जरा पूछना तो ...


जरा पूछना तो
बनजारिन-सी बसंती बयार से
कि यूँ लट लहराकर ,बलखाकर
बिंदिया , कजरा , महावर रचाकर
जोर-जोर से चूड़ियाँ खनकाकर
खुशबू-सा यौवन लुटाती हुई
अपने मोहक क्वांरी जाल में
किसे फंसाए फिर रही है ?

जरा पूछना तो
फगुनाई-सी फागुनी फुहार से
कि क्यों कभी आती-पाती खेलती है
तो कभी लुका-छिपी करती है
कभी फाहा-सा फहर-फहर कर
किससे हंसी-ठिठोली कर कर के
किसके बांहों को दहका जाती है ?

जरा पूछना तो
उन तितलियों के तकरार से
कि चुपके-से पनघट पर
जो गुलाबी धुप उतर आती है
तो ऐसा क्या कर जाती है कि
चुटकी में ही उनकी चुगली
क्यों उन्हें ही लड़ा देती है ?

जरा पूछना तो
इन फूलों के इकरार से
कि किसके लिए वे
पंखुड़ियों से पथ बुहारते हैं
और मंदिम-मंदिम मादक गान से
किसको पास बुलाते हैं
कि किरन-किरन चीर उतार कर
क्यों सबको ही लजा जाती है ?

जरा पूछना तो
हर साँझ के मनुहार से
कि किस मौन पाहुन से
मोरपंखी चाह लगा लेती है
चौंक-चौंक कर कभी चौक पूरती
कभी नये-नये बंदनवार बनाती
और सौंधी-सौंधी धानी पीर लिए
किसका बाट जोहती जाती है ?

जरा पूछना तो
हर सुबह के इनकार से
कि रात की बेचैन सिलवटों पर
क्यों है सतरंगी सपन खुमारी
कुछ कहती आँखें पर पलकें हैं भारी
और होंठों पर जो धरी उंगलियाँ
हौले-हौले हलचल करके
क्यों भोलेपन को भड़का जाती है ?

जरा पूछना तो
अपने भी इस हाल से
कि किसके लिए बौराया ,फगुनाया सा है ?
क्यों तिलमिल तारों पर टकटकी है ?
क्यों आतिश-अनारों सा कुछ फूटता है ?
क्यों कोई जादू-सा घेरे रहता है ?
क्यों वही मन में ही फेरे लेता है ?
क्यों हाल ऐसे बेहाल होता है ?
जरा पूछना तो .

Wednesday, February 13, 2013

इतना न पुकार ...


इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार ...

मुझ अनाधार को देकर
इक अनहोता-सा अनुराग-भार
अनबोले हिया में क्यों ?
मचाया है हाही हाहाकार
अनमना ये मन है
विचित्र-सा हर क्षण है
और है विस्मित क्षितिज तक
केवल वेदना-विस्तार...

इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...

अंधियारी-सी सींखचों में
अनजाने ही घूम रहा
अबतक मेरा सहज संसार
मुंदी पलकों पर पग-पग कर
पड़ती रही तेरी चमकार
चट चिराग जलाकर क्यों ?
तुमने खोल दिया
अपना निश्छल नेह-द्वार...

इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...

प्रतिपल छीजती जाती
जो है ये जीवन-डोर
मैं न जानूं खींचे क्यों ?
मुझे बस तेरी ही ओर
जो नहीं है , शेष कुछ भी
कैसे कहूँ ? वही मेरी निधि
मैं अभिसारिका तेरी
अभिसार कर , चाहे जिस विधि
मंजुल मुख फेर , मत कर
तू , मुझसे निठुर व्यवहार...

इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...

सब कहते हैं कि
ये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार...

इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार .

Saturday, February 9, 2013

कोई खोपड़ा-फिरा खोट है ...


               मनुष्यता में ही मनचला-सा
                कोई खोपड़ा-फिरा खोट है
                या सभी खोपड़ियाँ पर ही
                एक-सी लगी कोई चोट है

                सारे के सारे स्मृति के तंतु
                जो ऐसे अस्त-व्यस्त से हैं
                मानो बेहोशी- कोमा में ही
               जैसे कि सब सन्यस्त से हैं

                या कोई स्मृति-चोर कहीं
                सबों को ऐसे ही लूट गया
               कि होश से ही सारा संबंध
               लगता तो है कि टूट गया
             
                होश की सच्ची कहानियां
               अब बेहोशी ही लिख रही है
               तब तो मलकाए मीडिया में
               एक हलचल-सी दिख रही है

               चारों तरफ हैं वेंटिलेटर लगे
              पर सांस भी लेना मुहाल हुआ
              मिनरल-वाटर अभियान देख
               होश का भी है अब होश उड़ा

              खोई विस्मृति गली-कूचों से
              अपना नाम-पता पूछ रही है
              तल्खी से हर खुदे तख्ते को
              दादा-परदादा का बूझ रही है

               होश को भी हाइजैक करते
               स्मृति के इतने हैं तंग तंतु
              क्लोरोफार्म के विज्ञापन में
              ज्यों जौंकते से हैं जीव-जंतु

               सब तो एक- दूसरे को ही
              कैसे बेहोश-सा बता रहे हैं
             हाय! अब कौन यह कहे कि
           बताकर ही कितना सता रहे हैं .


Monday, February 4, 2013

कविता गढ़ डालूंगी ...


यूँ ही कुछ भी छेड़िए मत
नहीं तो मैं भी यूँ ही
दुहराते-तिहराते हुए
दो-चार-दस
कविता गढ़ डालूंगी
और अपने तहखाने में
तहियाये खटास/भड़ास को भी
आपके ही सिर मढ़ डालूंगी ...

लबड़ धोंधों के लेन-देन में
ऐसा ही कुछ तो होता है
सलज्ज साहित्यिकता
अपना ही सिर पकड़ रोता है ...

न!न!ऐसे सिर झटकने से
अब काम न चलेगा
आपकी ठंडी आंच में ही सही
ये गला दाल और भी गलेगा ...

कहिये तो इसमें
जोरदार तड़का लगा देती हूँ
व टमाटर-धनिया से
और भी सजा देती हूँ
अदि आप चाहे तो इसमें
मेवा-केसर भी मिला सकते हैं
अपने बिलोये मक्खन के सहारे
गले के नीचे भी पहुंचा सकते हैं ...

ये भी जानती हूँ कि
फ़ाइव स्टार वाली कविता ही
अब आपको ज्यादा लुभाती है
पर ये खटास/भड़ास भी तो
कुछ जुदा स्वाद ही लाती है ...

ऐसे मुंह मोड़ने से
अब काम न चलेगा
कविता के मना करने पर भी
ये स्वाद तो घुलता रहेगा ...

ओहो! क्या हुआ ?
जो मैं सीधी-सी बात
आपसे यूँ ही कह दे रही हूँ
और कविता के बहाने
आपके भी तहियाये भड़ास को
जो सव्यंग सह दे रही हूँ ...

आप भी जानते हैं कि
केवल मिठास कितना घातक है
और हर जगह पेप्सी-कोला को
गट-गट गटकता हुआ चातक है ...

चाटुपटु तो हमेशा से ही
कविता की बिंदी के समान है
आइये! मिल कर हम कहें -
सांगोपांग सौन्दर्य से सज्जित
हिंदी ही हमारा अभिमान है .