Social:

Tuesday, October 30, 2012

जिन्हें तकलीफ है किसी से ...


भीखमंगा बनकर सबसे
मोती मांगने का चलन है
बोनस में मिलते दुत्कार का
करता कौन आकलन है...

अपने ही प्राणों में दौड़ती
कड़वाहटों का जलन है , पर
एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप
करने में ही सभी मगन हैं...

मारे शर्म के पाताल में
कहीं छुप गया गगन है
भागीरथी-कतार देखकर तो
उसका बढ़ रहा भरम है...

भूल-चूक से भूल हो तो
ऐसी कोई बात नहीं है
अँधेरे को भी जो छलता है
वो तो कोई रात नहीं है...

कालिख से पुता उजाला
अपने ब्रांड को भजा रहा है
सफेदी की चमकार का हवाला दे
हाट-घाट पर दूकान सजा रहा है...

मछली तो फंसने के लिए होती है
और मल्टी-चारा भी कमाल है
मुँह में चूहे का दांत दबाये हुए
सबके कंधे पर एक जाल है...

सुख तो कोई दुर्लभ चीज नहीं
बस नीचे गिरते जाना है
बिन सोचे वो सब कर के
इस दुनिया का कर्ज चुकाना है...

जिन्हें तकलीफ है किसी से
चुपचाप जगह खाली कर दे
और भीखमंगों की झोली को
अपने आत्मसम्मान से भर दे .

Sunday, October 21, 2012

शुभ शक्तिपात करो !


जीवन-नृत्य को
द्रुत गति से कराने वाली
सचेतन संगीत से
स्वर्णाभ सुर-लहरी लहराने वाली
गीतातीत मेघ-गर्जना के
पार्श्व ताल को थपकाने वाली
स्नेहिल विद्युत्-स्पर्श से
पुनीत-पुलक जगाने वाली...

हे माँ!
विहिंसक वृत्तियों पर वज्रपात करो!
और सब पर शुभ शक्तिपात करो!

मधुरित पुष्प-मंजरी सी
उप्त उल्लास खिलाने वाली
चिर चाहना के चषक में
अमृत-पय पिलाने वाली
इंद्रधनुषी इच्छाओं में
नख-शिख तक उलझाने वाली
मोहिनी-मुग्धा सी
पुन: माया को लील जाने वाली...

हे माँ!
अनृत , मिथ्यात्व पर कठोर आघात करो!
और सब पर शुभ शक्तिपात करो!

अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य में
अर्धरात्री को उकसाने वाली
इस संकटापन्न संसार को
स्वर्गीय स्वानुभूति कराने वाली
घोर तमस के तृषा को भी
अंतत: त्राण दिलाने वाली
संकल्पित संकाश से
जगत को नित्यश: नहलाने वाली...

हे माँ!
अपने वैभव-विलास युत वक्ष से
अजात प्रकृति-शिशुओं को दीर्घजात करो !
और सब पर शुभ शक्तिपात करो!

Tuesday, October 16, 2012

कि पीर-सी लगे जुन्हाई...





                               ये कौन-सी रुत है आई 
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                             चाँद चुट-चुट चुटकी बजाए
                           मंद,मदिर-सा मलय लहराए
                           पर मेरे व्याकुल मन के लिए 
                            मेरे प्रीत की पुकार न आये
                           न ही बाजे प्राणों की शहनाई 
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                       नदियाँ पतुरिया-सी पायल बजाये
                          रात की रानी चूड़ियाँ खनकाए
                        बगिया में बिरही-बहार छिपकर 
                            गोपन-बिध से मुझे रिझाए
                             पर बेसुधी है मुझपर छाई 
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                             मन नहीं लगता क्या करूँ ?
                            प्रण नहीं निभता क्या करूँ ?
                           कुंठित-शंकित हर साँस लिए
                             दिन नहीं उगता क्या करूँ ?
                            न ही आई सुधि की पुरवाई
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                              आँखों में सपनों का खेला
                             अधर तक है अश्रु का रेला
                             कान में मेरे कोई ये कहता
                            कि लागूँ मैं खुद को ही मेला
                             खीजकर चेतना कसमसाई
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                               मेरे गीतों को जग गाये
                             अपना सौ-सौ अर्थ लगाए
                            जिसके लिए प्राण गीत रचे 
                             बस उसे ही समझ न आये
                          आह! मेरी आह उसे छू न पाई 
                              कि पीर-सी लगे जुन्हाई

                                ये कौन-सी रुत है आई 
                               कि पीर-सी लगे जुन्हाई .


          ( जुन्हाई - चाँदनी )

Saturday, October 13, 2012

पर भाव तो निरा निरक्षर है...


               वर्णमाला के बिखरे-बिखरे
                 बस थोड़े से ही अक्षर हैं
                कुछ और मैं कहना चाहूँ
             पर भाव तो निरा निरक्षर है

             क्षर-क्षर को लिखा बहुत है
             पर वह अक्षर रहा अलेखा
             अदेखे को मैं लिखना चाहूँ
              जो इस अंतरदृग ने देखा

               ऊर्ध्व वेग कोई उठता है
              भेद कर बुद्धि सूक्ष्म तार
          मुक्ताभ मुक्तक मैं बहना चाहूँ
             तन -मन के क्षितिज पार

            खोजती खोकर उसे खोने हेतु
             यह कैसी पागल प्यास है ?
             उस जिस को मैं गहना चाहूँ
             क्या मेरा अछूता उल्लास है ?

             मैं सांवरिया बनी किसी की
              बनाकर वेदना को वरदान
           अब तिल-तिल मैं सधना चाहूँ
             अनोखी आस की लिए भान

            जिह्वा पर मधु-बूँद गिराकर
            कोई छाया बना है मेरा छाज
              गपक गरल मैं पीना चाहूँ
              इतना ह्रदय भरा है आज

              इतना ह्रदय भरा है आज
             पर बिखरे-बिखरे अक्षर हैं
           बस उसको ही मैं भजना चाहूँ
            पर भाव तो निरा निरक्षर है .

Saturday, October 6, 2012

तुम मेरे हो कौन ?


विरवा में अनुक्षण अँखुआते
हर पंखड़ी , पात से पूछूं
भोर की सुकुमार किरणों सी
गंध बिखराती हर गात से पूछूं
अल्हड़ , आतुर चाहना की
फूलझड़ियों सी बरसात से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?

शिशिरा के हलके हिलोरे से
झिर-झिर झिलमिलाते मूंजों से पूछूं
कनखी ही कनखी में कुछ कह
सकुचाते सघन कुंजों से पूछूं
प्राण-पिकी की मतवाली सी
मरमराती मधुर गूंजों से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?

इन निर्झर नलिन-नयनों में तिरते
पल-पल की पिपासा से पूछूं
दूर-दूर तक विस्तीर्ण नीलिमा में
विस्तारित , विस्मित जिज्ञासा से पूछूं
झिर्रियों की झलक से चौंधियाकर
चुलबुलाते पंखों की अभिलाषा से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?

तुझ पाहुन की पगध्वनि पाने को
धमा-धम धमकते धड़कनों से पूछूं
तन पर तारकावलियों सा जड़ने को
तप्त , तत्पर चुम्बनों से पूछूं
देह की देहरी पर दुहाई देते
कसकते , कसमसाते आलिंगनों से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?

मुझे पूरब , पश्चिम और दक्षिण
दिखा- दिखा कर न जाने
उत्तर कहाँ है गौण ?
जब तुमसे जो पूछूं तो
रहस्य भरी मुस्कान लिए
बस रहते हो मौन...
अब कोई तो मुझे बताये
मैं किससे जाकर पूछूं कि
तुम मेरे हो कौन ?
 

Monday, October 1, 2012

न जाने क्यों ... ?


अपनी  ही  कुछ बंदिश में  न जाने क्यों
सीमित -दमित से ही रहते हैं कुछ लोग
इक  छोटा -सा अपना ही  आकाश लिए
क्यों  भ्रमित-चकित  रहते हैं कुछ लोग

चाँद -सूरज भी  पल दो पल के लिए ही
रोज तो  आते  हैं  पर यूँ ही चले जाते हैं
ख़ामोश -सी स्याह रात  को  ओढ़े लोग
अपनी जिक्र-फिक्र में ही भटक जाते हैं

उफ़ ! अकेलेपन का ये कैसा इन्तहां कि
दिल के धड़कने की , कोई आवाज़ नहीं
रोग तो लाखों हैं  ,यूँ  ही जीने के वास्ते
पर ग़म भूलाने को , कोई साज ही नहीं

बवंडर की तरह  और  तूफ़ान की तरह
हर तरफ ही देखो तो ,ये  क्या उठ रहा है?
अपने ही सींखचों  में ऐसे घूम -घूमकर
सब आकाश ही  इतना क्यों घुट रहा है ?

पानी के  बबूलों से बस  मोहब्बत करके
कलक कर  कागज की किश्ती बनाते हैं
अपने-अपने आग को ही अंदर छुपाकर
दावे से  दूसरों पर , कैसे तिलमिलाते हैं

छलावा और दिखावा की  ऐसी नुमाईश
करने वाला  खुद ही  क्या कह सकता है ?
चालाकी से चंद चांदमारी किये बगैर ही
ऐसा आकाश तो भला कैसे रह सकता है ?

अपनी  सारी महफ़िल को  वीराना करके
सबब पूछते  हैं  सब , हर एक से  रोने का
किस्मत  की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है  उन्हें  खुद को खोने का

बंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
सच -सच कहो तो  कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है

अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
अस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न  रह  पायेगा  कोई  भी आकाश .