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Saturday, July 28, 2012

क्षणिकाएँ...


एक जरा सी शुरूआत भी
बला की तूफ़ान ले आती है
फिर तो हलकी सी थपकी भी
जोरदार चपत लगा जाती है .

           ***

कोई कैसे बताये कि
कौन किसपर भारी है
हँस जीते या फिर बगुला
सिक्का-उछालू खेल जारी है .

           ***

गुदड़ी की गुत्थमगुत्थी भी
क्या खूब गुदगुदाती है
और बाँकी बर्बरता बैठकर
मजे में चने चबाती है .

           ***

टिमटिमाती मशालों की टीमटाम
हेठी दिखा कर हेल देती है
बरजोरी में अग्निशिखाओं को भी
एकदम पीछे धकेल देती है .

           ***

अनेक को एक ही सोंटे से
सोंटने में ही एकता है
जो ताखा चढ़ तूंबी बजाये
वो ही तुरुप का पत्ता है .


Tuesday, July 24, 2012

ख़ालिस खिचड़ी ...


आप पकाए क्या  ख़ालिस खिचड़ी
हांडी  को  ताकता  रह  जाए  खीर
बड़ा  नशीला है  ये जालिम नमक
जिसके   आगे   भागे   देखो  भीड़

बारह   मसाला   में   तेरह   स्वाद
लज्ज़त   लुटाये   आपका   चोखा
लार  टपक  कर  लड़ता  रह  जाए
और  जीभ  तो  खाता  रहे  धोखा

चाहे  आप  कुछ   भी  कहें  न  कहें
तनिक न  लगती  किसी को कड़वी
वर्जिश  करना  भी  भूल चुके  सब
आपका  घी  ही  घटाए  जो  चरबी

मिर्च  और   खटाई   खेले  खटराग
तिसपर पर्दापोशी करे  आप अचार
एक   बार  जो  जी  चढ़   जाए  तो
हिचकियाँ  लगाए  हुड़दंगी  विचार

बिन  जामन  के   ही  आप जमाए
कफ़ - वात- पित्त   नाशक    दही
छुआछूत   से  तौबा  कर  जीवाणु
हर  बात  को   बस   ठहराए  सही

कोई   हरजाई  जो  पलटी  मारे  तो
पटेबाज़ी  कर पटाये  आपका पापड़
मुँह पर  मैंने ऊँगली  डाल लिया जी
वर्ना  कहीं  खिचड़ी कर  दे न चापड़ .

Friday, July 20, 2012

मेरा पद्म तुम्हें भर लेगा...


गिरने   दो  अपनी   अहं - दीवारें
सम्पूर्ण - समर्पण   की   राहों  में
तब   मेरा  पद्म   तुम्हें  भर  लेगा
मूक -मिलन  के  मधुर  बाँहों  में

तुम  चाहे  जिस -जिस   देश रहो
जब -जब  चाहे   कोई  वेश   धरो
पल -पल की प्रतिच्छाया  बनकर
ये   अम्बुज  अंक   लगा  जायेगा

इन अधरों  के  इति  इंद्रधनु  बनो
और  बस भोले दृग की  बात सुनो
तरल -चपल  गतिविधियाँ  न्यारी
ये कलित कंज कर भरमा जाएगा

ज्यों   धरा   तरसे  तुम  भी  तरसो
उस   धाराधर  सा  जमकर  बरसो
तन - मन -प्राण से  भींग जाने को
ये जलज  भी  खिल-खिल जाएगा

विगत -आगत  से तुम  विरत रहो
जिधर मैं खींचू  बस  उधर ही बहो
मंद -मदिर  सा  अधीर  समीर में
ये  पुलकित  पंक  लहरा   जाएगा

माना  एक  से  बढ़  एक  चुभन  है
चंचल चित्त उद्वेलित  चिंतन  है
पर  कोई  सुन्दर  स्वप्न  सुनहला
ये  कमल  किलक  दिखा  जाएगा

शब्द - शब्द  से  कुछ  भी  न कहो
असह्य  वेदना  का  अनुताप सहो
तेरी   धड़कनों  की  आह का स्वर
ये  सरसिज  स्वयं  में  पा जाएगा

कोमल कितने प्रिय!चरण तुम्हारे
कि काँटे हिल -मिल  बसुधा बुहारे
और   तेरे   पथ  पर  पंखुड़ियों को
ये  शतदल  सदा  बिखरा  जाएगा

कितना  मृदुल - मोहक है  ये पाश
चहुँ ओर प्रिय! लखे  तेरा  ही भास
जिसपर गर्वित  रूप  कर निछावर
ये  नंदित नलिन  निखरा  जाएगा

मत  घबराओ  निज  हाथ  बढ़ाओ
मिट जाओ इन्हीं  शाश्वत चाहों में
तब   मेरा   पद्म   तुम्हें   भर  लेगा
मूक -मिलन   के   मधुर  बाँहों  में .

Monday, July 16, 2012

गहूँ - गहूँ


पीली  - पीली
उगूँ    -   उगूँ
सीली - सीली
बहूँ    -    बहूँ

चली  -   चली
रुकूँ    -   रुकूँ
कली  -  कली
फिरूँ   -  फिरूँ

मिली -  मिली
कहूँ     -  कहूँ
खिली -खिली
दिखूँ  -  दिखूँ

घड़ी   -   घड़ी
पगूँ    -   पगूँ
भरी   -   भरी
रहूँ     -    रहूँ

दिया  -  दिया
जलूँ   -   जलूँ
पिया  -  पिया
गहूँ     -    गहूँ  .

Friday, July 13, 2012

ग़ाफ़िल ग़ज़ल


जानते हो तुम
कि तुमसे ही है मेरी
मलाहत भरी मुस्कुराहट
बेसबब बेसमझ बेपरवा सी
न थमने वाली खिलखिलाहट....
और तुम खामख़ाह फुरकते ग़म देते हो
व मुद्दत बाद बेहाली से मिलते हो...
मैं रूठूँ तो यूँ न रूठो कहते हो
तिस पर खिलखिलाती रहूँ ख्वाहिश भी करते हो..
क्या कहूँ मैं...
कुछ न भी कहूँ तो
ये पलक ही उठकर
तुमसे हजार बातें कह जाती
और जब गिरती है तो
घबराकर क्यूँ साँसे तुम्हारी अटक जाती....
फिर तुम जबतक
इस माथे की उलझती-सुलझती लकीरों को
चूम-चूम कर सुलझा नहीं लेते
इन गालों की बदलती रंगत को
बड़ी सादगी से सहला नहीं लेते
गीतों के कुछ बेतरतीब पंक्तियाँ
बिन सुर गुनगुना नहीं लेते
उस चाँद के ग़रूर को भी
उसके दागों से आजमा नहीं लेते
और इस रूठी को मना नहीं लेते...
तबतक क़समें दे-देकर
वक़्त को तो रोक ही देते
छुनन-मुनन कर छेड़ती हवा को भी
झींख भरी झिड़क से टोक ही देते...
जैसे कि
मेरी मुस्कराहट की मुहताजी हों सब
जिसे देखकर खिल उठेंगे मोगरे के फूल
ठठा ठठाकर ठिठक जायेंगी
खिदमती खुशबू भी राह भूल....
फिर मानो पूरी कायनात ही
तुम्हारी इस ग़ाफ़िल ग़ज़ल की
गवाही देने को हो जायेगी बेचैन
और ये होंठ हिलते ही
मिल जाएगा सबको आराम-चैन....
ये जानते हुए भी
अजब-गजब अदा दिखा कर
मैं तो मानी हुई ही रूठी रहूँगी
कितने पिंगल पिरो-पिरोकर
तेरी प्रीत है झूठी कहती रहूँगी........
ताकि तुम यूँ ही
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .

Sunday, July 8, 2012

सबकी अपनी मर्जी...


सबकी  अपनी  मर्जी
सबका   अपना   ढंग
कोई     मारे     सीटी
कोई     फोड़े    मृदंग

बेसुरा      छेड़े     सुर
बेताल     देवे     संग
लकवा    मारा   नाच
फड़के      अंग - अंग

दाद,   खाज,  खुजली
खूब     जमाये     रंग
मन-मौजी     मलहम
और    मिलाये    भंग

बेमौसम   फूल   खिले
कौन     करे    शैतानी
कैसे   छिपाए  पतझड़
हँफनी   भरी    हैरानी

मुश्किल  में  मानसून
किससे    माँगे   पानी
छीछालेदर   सुन-सुन
और    बढ़ी   परेशानी

राग-मल्हार    छेड़कर
दुश्मनी   किसने ठानी
अब      नहीं    चलती
उसकी   ही  मनमानी

आसमान    सा   हुआ
दमड़ी      का      दाम
रिश्वत   खाए  बादल
भूले    अपना    काम

कंबल    तले   लेटकर
केवल     करे   आराम
मौसम     पैर    दबाये
ठोंके     जोर   सलाम

दलाल     बन     हवा
खींचे   सबका    चाम
कितना    जहर   बाँटे
राहत   कमाए   नाम

लटापटी    खूब    करे
धागा     बिन    पतंग
झुका      रहे     तराजू
चढ़ा     हुआ    पासंग

दहाड़      मारे     दहाड़
तुनका    हुआ    उमंग
आवाज़   चुप्पी    खाए
गूंगा    मचाये   हुडदंग

सींकिया मलखंभ  चढ़े
दबका    हुआ    दबंग
देख  बदलती  दुनिया
खरबूजा  कितना  दंग

सबकी    अपनी   मर्जी
सबका    अपना    ढंग
कोई       चढ़े      सीढ़ी
कोई        करे       तंग .

Tuesday, July 3, 2012

चिरजीविता


मैं अनवरत
अपनी ही भाषा की खोज में
अपनी प्रकृति से
सतत स्पष्ट-अस्पष्ट
संवाद करती रहती हूँ...
स्वयं ही
दृश्य-अदृश्य गति-तरंगों में
वाक्य-विन्यास सी बनती-बिगड़ती हूँ...
अति आंतरिक किन्तु
जटिल संरचनाओं को उसके
मूलक्रमों में सजाती-संवारती हूँ.....
फिर शब्द-तारों को
सुमधुर स्वरचिह्नों में
समस्वरित-समरसित करती हूँ.....
सरल-विरल भावों के
सुलझे-अनसुलझे
रहस्यों को बुनती-गुनती हूँ.....
उस काव्य-बोध के
चरम-बिंदु का
पहचान-निर्माण करती हूँ....
जिसके द्वारा रचित
चिरजीविता कविता को
उसकी यात्रा पर
अक्षरश: अग्रसर करती हूँ....
सत्यश:
मैं....मैं तो केवल.....
अभिव्यक्ति का व्याकरण बन
नवरसों के नवसृजन का
बस मधुपान-मधुगान करती हूँ .