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Tuesday, January 24, 2012

जानती हूँ...


बन कर मेरी छाया तुमने
अनुराग से दुलराना चाहा
पर उलझा सा बाबरा मन
तुम्हें कहाँ समझ पाया...
भूल मेरी ही है जो
अपना इक जाल बनाया है
तुम्हीं से खिले फूल को
तुमसे ही छुपाया है.....
चाहती तो हूँ कि प्रिय !
तुम्हारे अन्त:करण की तेज़ से
अपनी ही प्रतिमा उकेर लूँ
गहरी धुंध के इस बाँध को
झटके में बिखेर दूँ ....
साहस जगे तो स्वीकार करूँ
और तेरी धारा में बह चलूँ ...
हाँ ! तुमने तो
भरना चाहा झोली मेरी
पर रह गयी मैं कोरी की कोरी
कैसा भराव हुआ है... प्रिय !
खाली-खाली रह गया है कहीं..
स्तब्ध ह्रदय में जब झाँका है
तब निज दुर्बलता को आँका है..
उजियारे में नैन मूंदकर
कौतुक भरा बाल-क्षण जीकर
रह-रह कर आँख डबडबाया है
जानती हूँ...
अनमोल सा इस जीवन में
कैसे अपना मोल घटाया है .


57 comments:

  1. सही कहा आपने |

    बधाई ||

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  2. अपनों का मोल कहाँ आँका जाता है, जीवन तो समर्पणीय है..

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  3. बहुत ही सुन्दर पोस्ट है सत्य से साक्षात्कार |

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  4. behad khoobsoorat khyaal ukere hein aapne ,sapne aur aashaaon ke tootne par manosthitee ko bahut achhee tarah se chitral kiyaa hai,
    badhaayee

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  5. आपके इस उत्‍कृष्‍ट लेखन के लिए आभार ।

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  6. बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ ...

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  7. बहुत सुन्दर सोच |अच्छी प्रस्तुति
    आशा

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  8. इस रचना में आपकी अभिव्यक्ति काबिल-ए-तारीफ़ है.
    अपना मोल घटाने या बढाने की बात तो तब आती है..जब हम अपनी कीमत लगते हैं.रिश्तों में यह फरमा फिट नहीं बैठता. वैसे आपने अपनी रचना में भी उस फरमे को तोड़ने की बात कही है..साहस जगे तो स्वीकार चलूँ.

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  9. यहाँ मोल घटाने का आशय अपने अहंकार के परिपेक्ष्य में शुद्रता में उलझ कर अपने महान उद्देश्य से विमुख होना है . अर्थात स्वयं को छोटी-छोटी बातों में लगाकर अनमोल जीवन को यूँ ही जाया करने से है .

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    1. दार्शनिक सन्दर्भ की तरफ अच्छा ध्यान दिलाया आपने. फिर भी सवाल बना रहता है कि अपने सर्वोच्च लक्ष्य कि स्मृति कैसे बनी रहे? और उस दिशा में हम कैसे निरंतर आगे बढ़ते रहें? शुक्रिया

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    2. सर्वप्रथम हमें लक्ष्य का निर्धारण करना होता है तब उसके प्रति समर्पण करना होता है जो कि सतत स्मरण से होता है . साथ ही उसके अनुरूप परिश्रम करने से उस तक पहुंचा जाता है . जैसे हम स्वभावगत बातों को चाह कर भी स्वयं से अलग नहीं कर पाते हैं उसी तरह अपने लक्ष्य को भी स्वभाव बना लेने से वो विस्मरण में नहीं जाता है .

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    3. प्रणाम हो गुरु जी को .........इतना गहरा दर्शन....चरण कहाँ है आपने :-)

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  10. बेहद भावमयी रचना।

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  11. यही तो होता है.. घटना के बाद हम होश में आते हैं ।

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  12. This comment has been removed by the author.

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  13. क्या कहे .. झोली तो भरनी चाही .. लेकिन स्वीकार नहीं हुआ . पर इससे मोल कम नहीं हो जाता , न ही प्रेम का और न ही नायिका का . पर इन्तजार तो रहेंगा ही ..हमेशा ..

    मन को छूती हुई .. मन में बसती हुई.... मन से कहती हुई.....प्रेमकथा !!

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  14. This comment has been removed by the author.

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    1. बीत गए दिन भजन बिना रे ...
      बाल अवस्था खेल गंवायो ...
      जब जवान तब मान घना रे ..

      कहे कारन मूल गंवायो ..
      अजहूँ न गयी मन की त्रिसना रे ..

      कहत कबीर सुनो भाई साधो ..
      पार उतर गए संत जाना रे ...
      आज यही भजन गाने मन हुआ आपकी पोस्ट पढ़कर ...

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  15. अमृता जी इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकारें...

    नीरज

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  16. स्तब्ध ह्रदय में जब झाँका है
    तब निज दुर्बलता को आँका है... dil ko kuch kahti hui rachna

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  17. सार्थक चिंतन... बहुत सुन्दर...
    सादर.

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  18. भावपूर्ण कविता के लिए आभार.......

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  19. beautiful lines with deep and silent expression.

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  20. कितने सुन्दर भाव !! मन को छु गयी..
    kalamdaan.blogspot.com

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  21. मोल अमोल था जीवन
    पर हमने मोल घटाया है।
    ..वाह! सुंदर दर्शन।

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  22. बहुत बड़ी बात है निज दुर्बलता को आंकना... जो दुर्बल के लिए संभव नहीं...गहन भाव... बहुत -बहुत आभार...

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  23. बहुत सुन्दर रचना...दिल में कुछ हलचल कर गयी..

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  24. गहन अभिव्यक्ति ... अपने अहंकार में न हम खुद सुखी होते हैं और न दूसरे के द्वारा जो मिलता है उसकी कीमत आंकते हैं ...

    अच्छी प्रस्तुति

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  25. बहुत सुन्दर! जब आँख खुले तो सवेरा ...

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  26. अमृता जी, आखिर उसका जादू चल ही गया... बधाई !

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  27. वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  28. कई बार जीवन में साहस की जरूरत होती है और जब वो आ जाए ... सफर शुरू कर देना चाहिए ... अच्छा लिखा है ...

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  29. अंतःकरण के तेज़ से उकेरे गए चित्र अमित छाप छोड़ जाते हैं अमृता...जीवन मे ऐसे पल विरले ही आते हैं और ऐसे साथी अगर हों साथ तो पूरा दृश्यपटल ही रंग बिरंगी तितलियों से पत जाता है....जो निज की दुर्बलता आँकने की ताकत ट्राखते हैं उन सा बलशाली कोई नहीं अमृता...मैं तुम्हारी लेखनी से बहुत प्रभावित हूँ....हाँ, नए वर्ष पर शुभकामना संदेश रख छोड़ा है....कोशिश करूँगा की अब व्यवधान न हो लेखनी में...

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  30. अपने उद्देश्य में रचना पूर्णतः सफल।
    सराहनीय रचना....
    कृपया इसे भी पढ़े-
    क्या यही गणतंत्र है

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  31. बेहतरीन...बेहतरीन..बेहतरीन... अमृताजी

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  32. सुंदर रचना।
    गहरे भाव।

    गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....

    जय हिंद...वंदे मातरम्।

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  33. गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
    ----------------------------
    कल 27/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  34. मनोभावों के हर रंग आपकी लेखनी से स्पष्ट द्रष्टिगोचर होने लगते है .

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  35. bahut hee bhav poorn,sundar rachna padne ko mili,
    aabhar.

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  36. प्रत्येक पंक्ति दर्शन से पूर्ण..

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  37. गहन अनुभूति लिए भावपूर्ण अभिव्यक्ति....

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  38. पढ़कर लगा कि किसी ऐसे ने लिखा है जो मेरे बहुत करीब है।
    कुछ ऐसा ही कभी मैने भी महसूस किया था।
    शायद......!

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  39. "पर उलझा सा बावरा मन
    तुम्हें कहाँ समझ पाया"

    गहन चिंतन और आत्म-मंथन करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

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  40. बहुत ही गहन विचारो से ओत - प्रोत बेहतरीन भावात्मक अभिव्यक्ति

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  41. आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 28/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।

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  42. भावाकुल रचना के लिए साधुवाद...

    मन का बाज उड़ा जाता है चोंच में भर कर मन के पंख
    मन के आंगन मन की चिडि़या रोती है बेदीना है।

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  43. आपकी आत्म स्वीकारोक्ति बहुत कुछ सिखा रही है.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  44. जो अनमोल है वह सदा के लिए है -हीरे का मोल जौहरी के लिए है !

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