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Sunday, October 30, 2011

शून्य दिमाग़ में

शून्य दिमाग़ में
अचानक दौड़ पड़ता है
रेस लगाता घोड़ा
पछाड़ खाकर
गिरता है 
धड़ाम !
शून्य दिमाग में
उग आती है
हरी-हरी घासें 
कहीं से गाय बकरी
आकर चरने लगती हैं
कर देती हैं 
सपाट !
शून्य दिमाग़ में
रेंग पड़ते हैं
असंख्य कीड़े
मुँह मारते , स्वाद लेते
चूसते हुए कर जाते
सड़ाक !
शून्य दिमाग़ में
अंडे तोड़कर
निकलते हैं मेढ़क
उड़ने की चाह में
फुदकते हुए 
गिरते हैं उसी में
छपाक !
शून्य दिमाग़ में  
प्रेम करते हैं
शेर और शेरनी
एक-दूसरे को
काटते-नोचते हुए
गूँज उठती है उनकी
दहाड़ !
शून्य दिमाग़ में
टकराते हैं बादल
नसें चटकती हैं
बीजली चमक कर
गिरती हैं 
तड़ाक !
शून्य दिमाग़ में
उफनता है समंदर
उठते लहरों को
एक-एक कर
अपने में ही 
कर जाता है
गड़ाक !
 

Tuesday, October 25, 2011

मैं...तन्मय

1.
मेरी मौन
साधना में
गूंजते हो तुम
ओSSम बनकर
मेरे साध्य
साधती हूँ तुम्हें
हर साँस पर
मैं तन्मय होकर .
 
 
२.
मैं मात्र
हूँ एक पात्र
जिसमें
भरे हो तुम
मैं तन्मय
हो गयी चिन्मय
और अमृत
मेरे हो तुम .
 
 
३.
तुम्हें
शब्दों में
बाँधने की
युक्ति है या
स्वयं से मुक्त
होने की है
याचना ज्योतिर्मय
जिससे मैं हो जाऊं
तुममें केवल तुममें
..................तन्मय .
 
 
4.
 
हर क्षण
जलती हूँ मैं
तन्मय होकर
आलोकित
होते हो तुम
मेरी
आभा बनकर.
 
 
                    ***  शुभ दीपावली ***
 
 
 

Saturday, October 22, 2011

सार - वृत

जब एकोsहं बहुष्यामि
बहुष्यामि एकोsहं
तब केवल
''अहं ब्रह्माष्मी '' का 
हम क्यों पाले हैं भरम...
हम क्यों नहीं जानते
निज से औरों का मरम..
सब पोल खुली है फिर भी
हमें नहीं आती हाय! शरम..
काहे का ये झगड़ा - टंटा
फिर काहे कोई अनबन.........
तेरी - मेरी का ये चक्कर
क्यों नहीं बूझे लाल बुझक्कर
बड़े - बड़े भी यहाँ पर
खुद में है महा फक्कड़......
काहे का ये लटका - झटका
फिर काहे कोई उपक्रम....
जब सार- वृत
यही है जीवन का ---
शिवो s हं  शिवो s हं
सच्चिदानन्दों s s s हं
अप्रिय बात शुरू करने से पहले
सारी बात करो खतम .
   

Tuesday, October 18, 2011

ब्लॉग जगत

आम  लोगों  का   ये     ब्लॉग जगत
हर किसिम  के लोग   यहाँ आते  हैं
हर किसिम का आम खिलाते ही हैं
और  उसका  गुठली   भी  गिनाते हैं

ख़ास   लोगों  का  ये   ब्लॉग जगत
बेहद   ख़ास   लोग  यहाँ    आते   हैं
खुबसूरत   ख़ालिश    ख्यालातों   से
इस  जगत में  कई   चाँद लगाते हैं

वाद -प्रिय लोगों का ये ब्लॉग जगत
अनेकों  वाद    लिए      यहाँ   आते  हैं
कलम की  तअब -ताकत    दिखाकर
सशक्त  उपस्थिति  दर्ज      कराते  हैं

विवाद-प्रिय लोगों का ये ब्लॉग जगत
अनर्गल बातों  से  बक -वाद कराते हैं
वाद - प्रतिवाद  को   हवा  दे  दे    कर
ऐसा वैसा चाहे जैसा टिप्पणी पाते हैं

खिचड़ी-खीर  सा   ये      ब्लॉग जगत
पिज्जा- बर्गर सा   ये     ब्लॉग जगत
पेप्सी - कोला सा   ये     ब्लॉग जगत
या भंग मिले ठंडई सा ब्लॉग जगत .


मुझे भी लत लग गयी है --ठंडई की . 


    

Friday, October 14, 2011

झंकार

कौन अपनी अकुलाहट को जानता है
काल-व्यूह से निकलने को ठानता है
कुछ अस्पष्ट सी ध्वनि को टानता है
परिवर्तन की आहट को पहचानता है

लग गयी किस को ये कैसी लगन है
काल-चिंतन में ही जो बस  मगन है
बड़वानल- सा हर क्षण जो  चेतन है
सुगन्धित हो रहा कनक -चन्दन है

एक- एक कर संगी - साथी छूटते हैं
अभंग जिसकी सीमाएं , भी टूटते हैं
जब ह्रदय से यूँ ही फव्वारे  छूटते हैं
तब मरू- भूमि में भी अंकुर फूटते हैं

क्यूँ भीतर- भीतर मचा  हाहाकार है
किसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की  पहली  झंकार है

अदृश्य- सी डोर से खींचता  है   कोई
अज्ञात - अब्धि में  सींचता  है  कोई
अनवगत - सा पथ दिखाता है  कोई
अप्रति मैं ही हूँ वही या है इष्ट कोई.  
  
 

Sunday, October 9, 2011

तुम्हें लगता है....

तुम्हें लगता है
बहती हूँ मैं
हवाओं की तरह
भरता रहता है
तुममें प्राण.......
तुम्हें लगता है
लहराती हूँ मैं
नदियों की तरह
भींगे-भीगें से
तरंगित होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
महकती हूँ मैं
फूलों की तरह
मादकता से
उन्मत्त होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
चहकती हूँ मैं
चिड़ियों की तरह
नाच उठता है
तुम्हारा मन-मयूर........
तुम्हें लगता है
चमकती हूँ मैं
सूरज की तरह
रोशनी से
भरे रहते हो तुम.......
तुम्हें लगता है
छिटकती हूँ मैं
चाँदनी की तरह
शीतलित होता है
तुम्हारा रोम-रोम.......
प्रिय !
ये प्रेमातिरेक है या
उसकी सहज प्रवृति
पर मुझे लगता है
कि ये है तुम्हारी
आत्म-विस्मृति...
या फिर
तुमने मान लिया है
कि मैं हूँ तुम्हारी
कोई निगूढ़ प्रकृति .
 

Wednesday, October 5, 2011

मेरे शब्द

मेरे शब्द
जिससे मैं कहती हूँ
दुनिया भर की
बेसिर-पैर की हर
छोटी-बड़ी बातें......
कभी खड़ी करती हूँ
बहुमंजली इमारतें
ताशों के मानिंद
तो कभी गढ़ती हूँ
रेशमी धुआँ से
लच्छेदार छल्लेदार इबारत...
अक्सर उसी में छुपकर
कर लेती हूँ चुपके से
उसी की इबादत..........
मेरे शब्द
जिसे मैं महसूसती हूँ
अत्यंत आंतरिक स्तर पर
जो अपने आवरण में
कभी शराफ़त से
तो कभी शरारत से
लपेटे रहता है मुझे.......
कभी वह किसी सच के
बेहद करीब जाकर
अड़ जाता है
तो कभी खुद पर बिठा
न जाने कौन-कौन सी
जहान की सैर
करा देता है मुझे.........
मेरे शब्द
शायद शब्द भी
कम पड़ रहे हैं
या मैं ही हूँ कोई
निःशब्द शब्द .