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Friday, June 24, 2011

प्रेरणा

अज्ञात किसी क्षण सहसा
क्यों बेचैन हो उठता है मन
और अचानक कहीं गहरे में
उभरकर बिखरने लगती है
संवेदनाएं बेतरतीब.....
मैं उन्हें समेटना चाहती हूँ
तुम्हारे आशा के अनुरूप
अभिव्यक्ति देना चाहती हूँ
उन अव्यक्त विचारों को
जो अभिशप्त है मौन के लिए
और नियति बन जाती है जिनकी
वेदना-कुछ अजीब........
मैं उन्हें सहेज लेना चाहती हूँ
आत्मस्वरूप अहसास के
गहरे अनुभूतियों से
परन्तु अभिव्यक्ति कैसे दूँ?
जब मुझमें मैं ही न रही
क्योंकि आज जो सोचती हूँ
वो चिंतन तुम्हारे हैं
लिखती हूँ तो
शब्द भी तुम्हारे हैं
जीना चाहती हूँ तो
जीवन की शक्ति भी
या यूँ कह लो कि
सम्पूर्ण जीवन में
समा गए हो तुम
प्रेरणा बन कर .
 

Friday, June 17, 2011

दिवा-फिल्म

माना कि
खुदा मेहरबान है
तो.................है...
ये भी माना कि
आपसे मिली है मुझे
चार दिनों की चाँदनी...
पर अब
मेरी लाठी मेरा सूरज
और मेरा चाबुक देख
ऊँट करवट बदलेगा.....
बाली सा वरदान है
जगत जनार्दन से
गजब गठबंधन है
बहुमत है बहुबल भी है....
चाहे तो ग्रह-नक्षत्र
इधर से उधर हो जाए
ग्रहण लगने की कोई
गुँजाइश ही नहीं है......
अनहोनी के अंदेशा से ही
मदमस्त हाथी बन
रात गए रौंद सकता हूँ
आपके अरमानों को.......
मेरे इस
हास्यास्पद,लज्जास्पद लीला से
भले ही आपकी
आँखे या छाती
फटे तो आपकी बला से.......
बेलगाम घोड़ा हूँ तो क्या
आपका नकेल कसता रहूँगा...
हमारा लोकतंत्र फले-फूले
सो जंगल-नीति अपनाना है
मिश्री-मलाई से चुपड़ कर
आपको बहलाना-फुसलाना है... 
एक बार फिर
ये चाँदनी हमें ही दें आप
ऐसा दिवा-फिल्म दिखलाना है...
हम भी क्या करे
ये साम,दाम,दंड, भेद
का ही तो ज़माना है.
 

Saturday, June 11, 2011

परमारथ


मेरे अंधे अनुचरों
मैं अति महत्वाकांक्षी  
सिद्धि सिद्ध कर
मैंने दिया तुम्हें
वो दिव्य दृष्टि
जिससे तुम मुझे
देख सको
अपनी-अपनी
आकांक्षा के आईने में....
मेरी महानता है कि
आईने के पीछे चढ़ा
केसरिया मुलम्मे को
रगड़-पोछ कर
हो गया मैं
थोड़ा पारदर्शी......
देखो मेरा विशाल साम्राज्य
कब्र में लेटा सिकंदर भी    
रश्क करता होगा
इसे देखकर.......
थोड़ा और
पारदर्शी हो जाऊं तो
कब्ज़ा ही न जमा लूँ
पहले पायदान पर......
आओ कुछ कर्म करें
एक लम्बी सांस
अपने अंदर करो
तुम अपनी तिजोरी से
और तुम
अपनी अंटी से
परमारथ के  लिए
कुछ बाहर करो.........
बाजार में
बड़ी मारामारी है
देश में या तो बेकारी है
या केवल भ्रष्टाचारी हैं...
मेरे पीछे चलना
तुम्हारी लाचारी है.....
और तो और    
विरोधियों के हाथ
सान धरा आड़ी है......
हमें मिलकर
संभलकर चलना है
काले-गोरे का
भेद मिटा
परमारथ के लिए
एक-दूसरे को
छलना है.


         

Friday, June 3, 2011

अंगूठा

मेरे बारे में
बहुत कुछ पता रहता है
दूसरों को ......
जो अति गुप्त होता है या
अतिरेक का शिकार होता है...
और मैं
सशंकित रहती हूँ हमेशा
अपने ही बारे में....
न जाने किस
बेतार के तार से
जुड़ें हैं सभी.......
बिंदास होकर
कह देते हैं मुझे ही
मेरे बारे में......
जो दिखता है वो भी
जो नहीं दिखता है,वो भी
और मुझे
चुप होना पड़ता है.....
सोच की मरियल घोड़ी को
थोडा इधर,थोडा उधर
दौड़ना पड़ता है....
वाकई!
क्या वे सही है
जो अपनी राय से
तय करते हैं मुझे.....
फिर मैं ?
मैं क्या करती हूँ
अंगूठा ही तो लगाती हूँ
जो मैं नहीं हूँ
उसपर भी .