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Friday, May 27, 2011

प्रेम-पुलक

प्रेम धागा जो कच्चा हो तो
मोटे नायलान   से    गूँथवाऊं
फिर भी  जो   टूट  जाए  तो
फेवी-क्विक      से     सटवाऊं


प्रेम पंथ ज्यों हो कठिन तो
मखमली  कालीन  बिछवाऊं
तिस पर भी    कुछ चुभे तो
हवाई-मार्ग   यूज    में   लाऊं
 
 
प्रेम गली  अति सांकरी तो
उसपर   बुलडोजर   चलवाऊं
फोर-लेन पर जाम लगे तो
चार   ओवर-ब्रिज    बनवाऊं


प्रेम  जो   बाड़ी    उपजे  तो
हाई-टेक    खेती     करवाऊं
यहाँ जगह जो कम पड़े तो
चाँद पर भी कब्ज़ा  जमाऊं


प्रेम जो  हाट   बिकाय  तो
कौड़ी के भाव खरीद लाऊं
हवाला   से    स्विसबैंक  में
व कुछ चैरिटी  में  बटवाऊं


और अंत में
 
प्रेम का पाठ   जो   पढ़े  तो
स्वयंभू पंचायत    बिठवाऊं
प्रेमी-युगल   बच     न  पाए
सो ऑनर किलिंग  करवाऊं.  
  
 

Friday, May 20, 2011

सुपरनोवा

यदि
मेरे ऊपर
अल्पमात्र उपलक्षित 
मत्स्य रूपी
शब्द होते तो
जल भरे थाल में
बनते प्रतिबिम्ब को
देखकर कर लेती 
लक्ष्य-भेदन
और प्रमाणित करती
अपनी विद्वता.....
पर
ऊपर तो टंगा है
शब्दों का
अंतहीन आसमान
जिसे बारंबार
भेदना है मुझे
बाण रूपी लेखनी से......
जीर्ण-शीर्ण पड़े शब्दों में
संचार करना है
अपने प्राण का .....
ताकि
सुपरनोवा बनकर
ब्लैक-होल में
समाने को अभिशप्त
शब्द भी जिए
दीर्घायु होकर
और रचना-क्रम
चलता रहे
यूँ ही अनवरत . 
  
 

Saturday, May 14, 2011

दृग-मिचाव

कृपया किंचित  नेत्र  न   गोल करे
ये   कविहृदय    है,     कल्लोल  करे
 
 
भांति-भांति  कल्पनाएँ-कपोल  करे
ये   कौतुक-क्रीड़ा  है,   न  तोल करे
 
 
मरुत-मार्तण्ड    से,       होड़   करके
श्रृंखल-श्रृंखला     को,   तोड़   करके
 
 
वह्निमुखी  सा,    घन-घोर    करके
चले ,   चलन   को,    मरोड़   करके
 
 
पूर्वाग्रही   हो,    न     उपहास्य    करें
है सामर्थ्य  तो,  उचित भाष्य   करें
 
 
भावोन्मत्त  हो,  आत्म-आमोद करें
चैतन्य दृग-मिचाव है,   विनोद करें.
 
 
  
मरुत---हवा ,        मार्तण्ड ---सूरज ,       श्रृंखल-- -व्यवस्थित और ठीक ,           श्रृंखला--- कतार,  वह्निमुखी---ज्वालामुखी  ,     घन-घोर---भीषण ध्वनि ,        चलन----गति,प्रथा ,रिति-रिवाज
,    भाष्य-- -गूढ़ बात की विस्तृत  व्याख्या                                                                                        
दृग -मिचाव----आँख मिचौली का खेल .
  

Friday, May 6, 2011

खाई

रिक्तता की खाई में 
पसरी हुई है
मौन की परिभाषा...
रुद्ध है समस्त
मनोधारा-मनोकांक्षा..
शनैः-शनैः
टूटता मनोबल...
टूटे मौन तो
मुखरित हो मनोवृति
और संप्रेषित करे 
मनोवेग को
विचारों के रुखड़े-रूढ़ी से..
जिससे रुषित शब्दों को
मिले पुनर्जीवन-पुनर्वचन...
अन्यथा
चिर-काल से
शिखर पर खड़ी
सृज्य-सृष्टि
अभिवयक्ति को कहीं
गर्भ में लिए 
उसी खाई में न 
छलांग लगा दे .

रुखड़े-रूढ़ी---खुरदरा चढ़ाई
रुषित---दुखित
सृज्य-सृष्टि---सृजन करने योग्य रचना