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Saturday, December 31, 2011

स्वर्ण दिन आये क्या , लो गये ...


तिथियों को कई रूप में  ढल जाते  देखा
क्षण को अगले क्षण में धँस  जाते  देखा
दुःख को घर में ही एक घर  बनाते देखा
सुख को बस क्षितिज सा  लहराते  देखा

   जाग्रत स्मृतिओं में  सब  सो गये
   स्वर्ण दिन  आये  क्या  ,  लो गये

हरे-हरे  पत्ते  झटके में यूँ  झड़  जाते  हैं
खिले सुन्दर फुल  भी  यहाँ  मुरझाते  हैं
तरु-कंकाल तो  मिटने से  भय खाते  हैं
बिन  हवा  के  ही  घोंसले उजड़ जाते  हैं

   अनऋतु में भी रुत सारे बदल गये
   स्वर्ण दिन  आये   क्या  ,  लो गये

झूठ को  बैसाखियों से  दौड़  लगाते देखा
सच के खँडहर को यूँ  ही  भरभराते देखा
पंछीमन को तो जाल में  फँस जाते देखा
और जाल लिए दूर कहीं  उड़ जाते  देखा

   जो नहीं हैं हाय !  हम वही हो गये
   स्वर्ण दिन  आये  क्या  ,  लो गये

काल के अजनबी भँवर  जब पड़  जाते हैं
कई-कई शिखर अनजीते  ही रह  जाते हैं
पाँव तले  हर  पड़ाव भी  खिसक  जाते हैं
और  हार को  हार बना  गले  लटकाते  हैं

   पानी देखते ही वाह! प्यास हो गये
   स्वर्ण दिन  आये  क्या  ,   लो गये .






Tuesday, December 27, 2011

मीठा-मीठा

जमाने से जमा
जमाने भर की
शिकवा - शिकायतों को
बड़ी सी गठरी में डाल
जोरदार गाँठ लगा
पीठ पर लादकर
जमाने से जमा
सारी खीज और झल्लाहटों को
पीसकर भांग सा गोली बना
झटके में हलक से उताड़ने पर
धीरे-धीरे चढ़ता है जो सुरूर
फुर्र हो जाता है सारा ग़रूर
अपने ही पिंजरे को तोड़
कोई उड़ जाता है
आसमानी जहाँ में पहुँच
आसमान सा हो जाता है
बादलों पर बैठ कर
हवा संग बलखाता है
कौंधते बिजली को पकड़
चाँद को मुँह चिढ़ाता है
लाख मना के बावजूद
अजीब सा दाढ़ी - मूँछ
उसके मुँह पर बनाता है
ऊँघते हुए सूरज के
सातों घोड़े की पूंछ में
जलता पटाखा बाँध आता है
बिखरे सितारों को भी
एक कतार में खड़ा कर
थोड़ा वर्जिश करवाता है
ओह ! वह चुहलबाज़
दम भर सबके
नाक में दम कर देता है
इसी भागा-दौड़ी में
पीठ पर लदी गठरी भी
कहीं गिर जाती है
सारी खीज और झल्लाहट
मीठी-मीठी शरारत में
बदल जाती है
और जमाने भर से
जमाने भर के लिए
दबा कर रखा हुआ
कुछ मीठा-मीठा सा
उभर आता है .
 
  
  

Saturday, December 24, 2011

पहुनाई


घुमता हुआ चाक
ठहरी    है   कील
बौराया सा वर्तुल
नापे    है     मील
इतरा -इतरा कर
बहके    है  नागर
माटी  का पुतला
है  राज़  उजागर
कंचन  की   बेड़ी
सपनों की झाँकी
आँसू  की लड़ियाँ
पाँसी   में   पाँखी
भर आये  मनवा
उलाहना के बोल
फूट     न     पाए
बूझे   तब    मोल
बिन   बताये   ही
जो  हाँक   लगाई
दुविधा में पथिक
क्षण  की पहुनाई
न - नुकुर     करे
भंग   होवे   शील
घूम    रहा   चाक
ठहरी    है    कील .



Wednesday, December 21, 2011

झणत्कार


कभी वो करीब से गुजर गया
कभी वह और करीब हो गयी
कभी वो छेड़ गया आहिस्ते से
कभी वह भी चिढ़ा गयी उसे
कभी वो सिहरा गया प्यार से
कभी वह गुदगुदा गयी उसे
कभी वो भर लिया बाँहों में
कभी वह फिसल गयी उससे
कभी वो बना गया उसे नया
कभी वह निखर गयी उससे
कभी वो छलक गया उससे
कभी वह छिप गयी उसी में
कभी वो बह गया उससे
कभी वह समा गयी उसमें
कभी वो रच दिया उसको
कभी वह हवा सी हो गयी
यूँ ही अनवरत चलता रहता है
उनका प्रणय- सृजन और
जन्म लेती हैं कवितायें
मैं तो तन्मय हुई जाती हूँ
शब्द और चेतना के बीच
इस अद्भुत समागम में
और केवल पहनाती रहती हूँ
कविताओं के पाँव में पायल
झनक-मनक करती हुई वह
जिस ह्रदय तक पहुँचती है
अपनी निरी झणत्कार से
क्षण भर के लिए ही सही
उसे झंकृत कर जाती है .


Friday, December 16, 2011

मिट्टी की सेज

नहीं चाहा कभी
मिट्टी की सेज पर बिछना
और मिट्टी हो जाना
बस गंधी से कुछ गंध
उधार लेकर
भर दिया कल्पनाओं में
कर दिया हवा के हवाले
नहीं पता था कि
पंख समेट कर हवा भी
चल देगी अपने रस्ते
मिट्टी पर गिरकर वो
गंध जायेगी उसी गंध में....
वही भभका देगा
फूल बनने के स्वांग को और
कन्नी काटकर निकल लेंगे
भंवरे , तितलियाँ ....
बैठकखाने के सजावट को भी
खिल्ली उड़ाने का
मिलेगा मौका भरपूर...
नहीं पता था कि
मिट्टी में गड़कर
मरना होता है , सड़ना होता है
फूटती हैं तब कोंपले
चाहतों का क्या
बस चाहना काम है...
अभी भी बस
भनक ही लगी है कानों को
पता चलते - चलते
पतझड़ में तो
जरुर मिलना होगा उससे..
अभी दिख रहा है
भागता हुआ बसंत
पतझड़ के पीछे...
कल्पनाओं में ही खिले रहे
अमरबेलों पर फूल
न मुरझाने वाला
गंधी को उधार लौटाने का
जी नहीं कर रहा है ... 
हाँ , नहीं बिछना चाहती हूँ
मिट्टी की सेज पर
नहीं होना चाहती हूँ मिट्टी
खुद से जो प्यार हो गया है .

 

Tuesday, December 13, 2011

विरह - गीत


हमारे - तुम्हारे  विरह  ने पिया
दर्द के गीत को जनम  दे दिया


अनदेखे से परदेश में , हो  तुम
न जाने किस वेश में  , हो तुम
तेरी स्मृतियों में   ही , मैं  घूमूँ
नाम तेरा  ही ,  ले  लेकर  झूमूँ
जोगन को मैंने भी  जोग लिया
बेमोल ही दर्द  को , मोल लिया

हमारे - तुम्हारे  विरह  ने पिया
दर्द के गीत को  जनम दे दिया


हियरा   रह - रह   के   हहराये
भीतर- भीतर   घुट- घुट  जाये
हर आहट पर  ऐसे चिहुंक  उठे
लाख मनाऊँ फिर भी क्यों रूठे
नेह ने जाने कैसा हिलोर लिया
आँधी बन  मुझे झझकोर दिया

हमारे - तुम्हारे  विरह  ने पिया
दर्द के गीत को  जनम दे दिया


कैसे बाँधूँ अपने  बिखरे मन को
सूली के जैसे ,  इस  सूनेपन को
मुझको यूँ , अब  भटकाओ  मत
साँसों की कथा  लिखवाओ  मत
शब्दों में बस मुझे ही ताना दिया
गीतों का तो , बस  बहाना लिया

हमारे - तुम्हारे   विरह  ने पिया
दर्द के गीत  को  जनम दे दिया


कैसे  तुझ  तक ,  इन्हें  पहुँचाऊँ
इतनी पीड़ा  से ,  मैं  ही  लजाऊँ
मृग - जल मन को  है  भरमाता
मेघों से जुड़ गया  है  इक  नाता
क्या तुने ऋतुओं को  बोल दिया
इन पलकों में सावन घोल दिया

हमारे - तुम्हारे  विरह  ने पिया
दर्द के गीत को  जनम दे दिया .  






Friday, December 9, 2011

चमत्कार

भूगोल की बात होती तो
जरुर होता
कोई न कोई नक्शा
नहीं तो अवश्य ही होता
कोई भी सूक्ष्म सुराग
तहों के पार का ...
कार्य - कारण के
प्रतिपादित सिद्धांतों के बीच
अकारण घटित अनपेक्षित तथ्यों का
कोई न कोई मिलान बिंदु तो
जरुर होता और
इस बिंदु से उस बिंदु पर
उस बिंदु से फिर उस बिंदु पर
पहुँचने का कोई संकेत-सूत्र
अवश्य ही होता...
अपरिचित नियमों से
सरक जाता घना आवरण
निरपेक्ष नियमों से
उम्मीद की जाती
पक्षपाती सख्ती कम होने की....
फिर तो व्यथा से होते
सतत उल्कपातों का भी
मिल जाता कोई ठोस कारण....
ये सब होता तो कोई
चमत्कार नहीं ही होता
पर सच में अगर
ऐसा हो जाता तो यक़ीनन
चमत्कार ही होता .

Monday, December 5, 2011

मेरी मटकी

मैं चतुरी
एक मेरी मटकी
उस मटकी में
भर कर
अपने संसार को
सिर पर रख
चला करती हूँ
मटक मटक कर
अपनी ही राह पर.....
आँखों में बनते
मन में बसते संसार को
उसी मटकी में
भरती जाती हूँ...
अपने संसार में
ऐसे मगन होती हूँ कि
उड़-उड़ कर
छूने लगती हूँ
अपने गगन को...
अचानक से
टकराती भी हूँ
किसी संदिग्ध
संक्रमित संसार से
गिरती हूँ औंधे मूँह
टूट जाती है
मेरी मटकी
और बिखर जाता है
मेरा संसार भी....
मूढ़ता या बुद्धिमत्ता में
मैं चपला
उसी क्षण
अपनी मटकी में
एक और संसार भरती हूँ
फिर सिर पर रख
फिर उसी राह पर
चलने लगती हूँ
मटक मटक कर .

 

Friday, December 2, 2011

आयोजन

मैंने लिखना चाहा
केवल एक गीत
तुम्हारे लिए...
हर बार
सबकुछ हार कर
वही एक गीत लिखती हूँ
पर तुम्हारा रूप
और विस्तार पा जाता है
जो मेरे गीतों में
नहीं समा पाता है...
हर बार
मेरा गीत हार जाता है....
मैं फिर लिखती हूँ
नए गीतों को
जिसमें तुम्हें
पिरो देना चाहती हूँ..
लेकिन कुछ
शेष रह जाता है
जिसे मेरा गीत
नहीं अटा पाता है....
जो शेष रह जाता है
वही मुझसे
बार-बार
नये गीत लिखवाता है
मुझे स्तब्ध कर
फिर से
वही शेष रह जाता है ....
तुम्हारे लिए
मैंने लिखना चाहा था
केवल एक गीत
पर यूँ ही
मेरा सारा आयोजन 
धरा का धरा रह जाता है .

Tuesday, November 29, 2011

आहों में ..


चलते-चलते थक जाती
पाती  न   पंथ की सीमा
अवरोधों से डिगता धैर्य
फिर भी  न  होता धीमा

प्यासी  आँखे  बहती  है
बूंद-बूंद   में हुआ जीना
चिर अतृप्त  सा जीवन
अंजुरी  भर  चाहूँ  पीना

न मिले  तृप्ति  कणभर
सागर और भी तरसाया
इक आकाश  की चाह ने
मुझको  है बस भरमाया

अंतरदृग  में  वही  छवि
हर  इक  पल   रहती  है
जो वह  कह  नहीं  पाया
वो सबकुछ ही कहती है

हाथ  बढ़ा  छू  लूँ  उसको
भींच  लूँ  अपनी बांहों में
पाने में तो  खो दिया उसे
खोकर पा लिया आहों में  .




Friday, November 25, 2011

म्यान

अपनी तरफ से मैंने

कभी कोई पहल नहीं किया

उसने किया भी तो, मैं

अनजान बन गयी

उसी के साथ म्यान में हूँ

अनजाने, अनचीन्हे रिश्ते लिए

और हमेशा बीच में देती रही

अनबन को ज्यादा जगह....

हालाँकि कोई घोषित दुश्मनी

या कोई धर्मयुद्ध है

ऐसा भी नहीं पर हरवक्त

होती रहती है तलवारबाजी...

सम्मानजनित सामंजस्य

सभ्य सुरक्षित वार

घाव भी ऐसे देना कि

प्रतिरक्षण प्रणाली

आप ही कर ले दुरुस्त....

कोई शर्त या बाध्यता नहीं

रण में डटे रहने की

संवेदनशील भावहीनता

भाषा जनित संवादहीनता

संकेतो या तरंगों के बीच भी

अनजानी अर्थहीनता........

बस पुतलियाँ बड़ी- बड़ी कर

एक- दूसरे को घूरना

उबन कम करने के लिए

उबासियाँ ले ले कर

थपकियाँ दे दे कर

एक- दूसरे को जगाते रहना.....

या फिर मुँह फेरकर

अनजाने रिश्ते में

थोड़ी और खटास घोलना.....

मुझपर हावी है वो और

भारी भी पर, मैं भी

कुछ कम तो नहीं.....

ये म्यान मेरा है

उसकी अपनी मजबूरियां है

तो फिर वायदा- कायदा को

तोड़- ताड़ करने में

कुछ जाता भी नहीं है.......

ज्यादा चिढेगा वो, भागेगा

और इस खोखले म्यान को तो

खाक होना ही है

फिर बाँचने वाले बाँचते रहेंगे

खोखले म्यान की

खोखली महिमा .

 

Tuesday, November 22, 2011

द्वार तुम्हारा खुला नहीं...


इक  झलक  तेरी  जो  मिली
चली  आई  तेरे  द्वार   तक
बड़ी  देर से साँकल बजा रही
प्राणों से  भी  खूब  थपकाया
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं

जोर - जोर से  तुम्हें  पुकारा
रुंधा गला तो विवश  निहारा
तुमने कैसे  मुझे  सुना  नहीं
या अनसुना कर अस्वीकारा
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं

व्यथा - पुष्पों  से  सजा कर
वेदना का  वंदनवार बनाया
साँसों  की   वेद - ध्वनि   से  
आर्तनाद  कर  तुम्हें बुलाया
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं

आँसुओं का  अर्घ  चढ़ा  कर
नैनों का अखंड दीप जलाया
भावों का  ह्रदय - थाल लिए
विरव समर्पण कर मनुहारा
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं

मैं  अलबेली   हार   न  मानूं
द्वार पड़ी  बस  तुझे  पुकारूं
इक  झलक  पाने   के   लिए
अब तो अपना मान भी वारा
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं

मैं  विरहिणी  आस  न  छोडूं
कर तो  रही  हूँ  सारा  जतन
रूठे  हो   क्यूँ   मेरे   प्रियतम
क्यूँ  तुमने  है  मुझे  नाकारा
पर द्वार तुम्हारा खुला नहीं .

Saturday, November 19, 2011

सर्द राते हैं


कंपकंपाते अधरों पर , तुमसे कहने को
कितनी  ही  बातें  हैं ,    सर्द   राते    हैं

बादल के गीतों पर ,चाँदनी थिरकती है
ओस की बूंदे , जलतरंग  सी  बजती  हैं
हवाओं की थाप से तारे झिलमिलाते हैं
कितनी   ही  बातें  हैं ,    सर्द   राते    हैं

धीरे से कोहरा अपनी चादर फैलाता  है
थरथराते वृक्ष-समूहों को  ढक जाता  है
पत्ते की ओट लिए फूल सिमट जाते हैं
कितनी  ही   बातें   हैं ,   सर्द   राते    हैं

हिलडुल कर झुरमुट कुछ में बतियाते हैं
दूबों को झुकके बसंती कहानी सुनाते  हैं
जल-बुझ कर जुगनू  कहकहा लगाते  हैं
कितनी   ही   बातें   हैं ,   सर्द   राते    हैं

थपेड़ों को थपकी में,नींद उचट जाती है
बिलों में सोई ,  जोड़ियाँ कसमसाती  हैं
नीड़ों में दुबके , पंछी  भी  जग जाते  हैं
कितनी   ही  बातें  हैं ,   सर्द    राते    हैं

ठिठुरी सी नदियाँ ,सागर में समाती  हैं
लहरों के मेले  में ,   ऐसे   खो जाती  हैं
उठता है ज्वार  और  गिरते  प्रपातें   हैं
कितनी   ही   बातें   हैं  ,   सर्द  राते   हैं

कोई नर्म  बाहों का  , घेरा  बनाता   है
गर्म पाशों में,  सर्द और उतर आता  है
घबराते, सकुचाते ,  नैन झुक जाते  हैं
कितनी  ही  बातें  हैं ,    सर्द   राते   हैं

तुमसे  कहने को  ,   जो  भी  बातें    हैं
इन अधरों  से ही ,क्यों लिपट जाते   हैं .
           
 

Tuesday, November 15, 2011

उसे जगाओ !

जरा देखो  तो !    ये   अचरज
कहीं ठहरा तो  नहीं है   सूरज
 
मौन  अँधियारे के  उस  छोर पर
सुन्दर  सी  सुबह  लाने  के लिए
अहर्निश,अहैतुक,अक्षय उर्जा को
अहो ! तुममें भर  जाने के  लिए
 
सपनों की   गहरी   सी   नींद में
द्वार - दरवाजे  सब  बंद  किये
और  करवट बदल - बदल  कर
सोया  है  कौन ,   उसे   जगाओ
 
कल्पनाओं  की  छद्म  नगरी  में
चुम्बकीय   मायावी  महल  को
हीरे - जवाहरातों   से  जड़ने  में
खोया है  कौन  ,  उसे  जगाओ
 
बंदी  बन    बाँगुर   में   फँसकर
बुद्धि पर चढ़ाए  मोटा  प्लस्तर
आँखों  में  स्वयं  कील  गड़ाकर
रोया  है  कौन ,    उसे   जगाओ
 
देखो असंख्य फूल खिल रहे है
अनगिनत  खग   चहक  रहे हैं
निज को  दुःख की लड़ियों  में
पिरोया है  कौन,  उसे  जगाओ
 
अब तो जागो  !  जाग भी जाओ
आसमानी मन पर सूरज उगाओ
 
परोक्ष   मार्ग  से   आती  पुकार
ये जीवन  है   अनमोल  उपहार
कण - कण का  ऋण  चुकाकर
कर लो  अपनी  जय - जयकार.

Friday, November 11, 2011

दुर्निवार दर्द

एक तो भीषण मानवता का वीभत्स सत्य
और विचलित करने वाला दुर्निवार दर्द
जिसका विशेषीकरण करने के क्रम में
संभ्रमित संवेदनाओं का पुट तो ठीक है
पर लगाए गये जोरदार छौंक से
जो उठता है दमघोंटू धुँआ
घुस जाता है नथुनों से फेफड़ों में
मरोड़ने लगता है पूरा कलेजा
उलझ जाती है अतड़ियाँ और भी
आने लगती है उबकाई पर उबकाई
नसों में दौड़ता विद्रोही ख़ून भी
रुकने लगता है जहाँ - तहाँ
तापक्रम के अति चरम पर
खलबलाने लगता है खूब
अपनी ही नदियाँ बहाने के लिए 
उताड़ू रहता है बात बात पर
कितना भी समझाया- बुझाया जाए
उल्टा करने लगता है शास्त्रार्थ
अपने सवालों के बवंडर में
कोमल भावनाओं को फँसा कर
तिरोहित कर देता है
इन्द्रधनुषी तृष्णा व तृप्ति को
सहज , सुन्दर आकर्षण को
जीवन के सारे तारतम्य को
जो आकाश-कुसुम सा खिला रहता है
जिलाए रखता है हमें और हम
उसी को ताकते - ताकते
कृत्रिम सुगंधों से ही सही
भरते रहते हैं प्राण - वायु
अपने अस्तित्व के तुरही में...
दर्द और संवेदना जरुरी है
खुशियों का मोल समझने के लिए
पर अति क्यूँ इति सा लगता है ..
सभी इन्द्रियों से तुरही को सुनने पर    
संवेदना का स्वर तो निकलता ही है
साथ ही खुशियों-आशाओं का
ऐसा मधुर गीत भी निकलता है कि
दुर्निवार दर्द बन जाता है
भरपूर जीने की प्रेरणा और शक्ति .

Saturday, November 5, 2011

बातें हैं ...

बातें हैं , बातों का क्या
हवा सी डोलती - फिरती
आड़ी - तिरछी दिशाओं में
उल्टा - सीधा कोण बनाती हुई
ज्यामितीय परिभाषाओं को
तोड़ती-मरोड़ती, बनाती-बिगाड़ती
छूना चाहूँ तो अपने ही केंद्र में
चुपचाप सी दुबकती बातें
पकड़ना चाहूँ तो परिधि पर
घुमती- घामती , नाचती- भागती
मुझे ही लट्टू बनाती बातें
बलात कोई चक्रवात
खींच ले मुझे अपने पाताल में
और उसके परतों का करना पड़े
अध्ययन दर अध्ययन .. ओह !
बातें हैं , बातों का क्या
बादलों की तरह
सर्द होऊं कि बरस जाती है
इतना कि डूबती-उतराती रहूँ और
बनाती रहूँ डोंगी ,नैया ,जहाज
या फिर उसे उलीचती रहूँ
डूबी रहती हूँ पूरी तरह
बातें हैं , बातों का क्या
अटक कर , कुरेदती हुई
बना देती है रिसता घाव
उसे छलनी में डालूँ भी तो
छलनी सी हो जाती है
बात पर जो आऊँ तो
उड़ा देती है अपनी बातों में
बिखरी पड़ी है बरकती बातें
ये भोथरी- बरछी सी बातें
खुलती- गाँठ सी बंध जाती बातें
बातें हैं , बातों का क्या
कितना भी पलट दूँ
फिर भी निकलती हैं बातें .
 

  

Sunday, October 30, 2011

शून्य दिमाग़ में

शून्य दिमाग़ में
अचानक दौड़ पड़ता है
रेस लगाता घोड़ा
पछाड़ खाकर
गिरता है 
धड़ाम !
शून्य दिमाग में
उग आती है
हरी-हरी घासें 
कहीं से गाय बकरी
आकर चरने लगती हैं
कर देती हैं 
सपाट !
शून्य दिमाग़ में
रेंग पड़ते हैं
असंख्य कीड़े
मुँह मारते , स्वाद लेते
चूसते हुए कर जाते
सड़ाक !
शून्य दिमाग़ में
अंडे तोड़कर
निकलते हैं मेढ़क
उड़ने की चाह में
फुदकते हुए 
गिरते हैं उसी में
छपाक !
शून्य दिमाग़ में  
प्रेम करते हैं
शेर और शेरनी
एक-दूसरे को
काटते-नोचते हुए
गूँज उठती है उनकी
दहाड़ !
शून्य दिमाग़ में
टकराते हैं बादल
नसें चटकती हैं
बीजली चमक कर
गिरती हैं 
तड़ाक !
शून्य दिमाग़ में
उफनता है समंदर
उठते लहरों को
एक-एक कर
अपने में ही 
कर जाता है
गड़ाक !
 

Tuesday, October 25, 2011

मैं...तन्मय

1.
मेरी मौन
साधना में
गूंजते हो तुम
ओSSम बनकर
मेरे साध्य
साधती हूँ तुम्हें
हर साँस पर
मैं तन्मय होकर .
 
 
२.
मैं मात्र
हूँ एक पात्र
जिसमें
भरे हो तुम
मैं तन्मय
हो गयी चिन्मय
और अमृत
मेरे हो तुम .
 
 
३.
तुम्हें
शब्दों में
बाँधने की
युक्ति है या
स्वयं से मुक्त
होने की है
याचना ज्योतिर्मय
जिससे मैं हो जाऊं
तुममें केवल तुममें
..................तन्मय .
 
 
4.
 
हर क्षण
जलती हूँ मैं
तन्मय होकर
आलोकित
होते हो तुम
मेरी
आभा बनकर.
 
 
                    ***  शुभ दीपावली ***
 
 
 

Saturday, October 22, 2011

सार - वृत

जब एकोsहं बहुष्यामि
बहुष्यामि एकोsहं
तब केवल
''अहं ब्रह्माष्मी '' का 
हम क्यों पाले हैं भरम...
हम क्यों नहीं जानते
निज से औरों का मरम..
सब पोल खुली है फिर भी
हमें नहीं आती हाय! शरम..
काहे का ये झगड़ा - टंटा
फिर काहे कोई अनबन.........
तेरी - मेरी का ये चक्कर
क्यों नहीं बूझे लाल बुझक्कर
बड़े - बड़े भी यहाँ पर
खुद में है महा फक्कड़......
काहे का ये लटका - झटका
फिर काहे कोई उपक्रम....
जब सार- वृत
यही है जीवन का ---
शिवो s हं  शिवो s हं
सच्चिदानन्दों s s s हं
अप्रिय बात शुरू करने से पहले
सारी बात करो खतम .
   

Tuesday, October 18, 2011

ब्लॉग जगत

आम  लोगों  का   ये     ब्लॉग जगत
हर किसिम  के लोग   यहाँ आते  हैं
हर किसिम का आम खिलाते ही हैं
और  उसका  गुठली   भी  गिनाते हैं

ख़ास   लोगों  का  ये   ब्लॉग जगत
बेहद   ख़ास   लोग  यहाँ    आते   हैं
खुबसूरत   ख़ालिश    ख्यालातों   से
इस  जगत में  कई   चाँद लगाते हैं

वाद -प्रिय लोगों का ये ब्लॉग जगत
अनेकों  वाद    लिए      यहाँ   आते  हैं
कलम की  तअब -ताकत    दिखाकर
सशक्त  उपस्थिति  दर्ज      कराते  हैं

विवाद-प्रिय लोगों का ये ब्लॉग जगत
अनर्गल बातों  से  बक -वाद कराते हैं
वाद - प्रतिवाद  को   हवा  दे  दे    कर
ऐसा वैसा चाहे जैसा टिप्पणी पाते हैं

खिचड़ी-खीर  सा   ये      ब्लॉग जगत
पिज्जा- बर्गर सा   ये     ब्लॉग जगत
पेप्सी - कोला सा   ये     ब्लॉग जगत
या भंग मिले ठंडई सा ब्लॉग जगत .


मुझे भी लत लग गयी है --ठंडई की . 


    

Friday, October 14, 2011

झंकार

कौन अपनी अकुलाहट को जानता है
काल-व्यूह से निकलने को ठानता है
कुछ अस्पष्ट सी ध्वनि को टानता है
परिवर्तन की आहट को पहचानता है

लग गयी किस को ये कैसी लगन है
काल-चिंतन में ही जो बस  मगन है
बड़वानल- सा हर क्षण जो  चेतन है
सुगन्धित हो रहा कनक -चन्दन है

एक- एक कर संगी - साथी छूटते हैं
अभंग जिसकी सीमाएं , भी टूटते हैं
जब ह्रदय से यूँ ही फव्वारे  छूटते हैं
तब मरू- भूमि में भी अंकुर फूटते हैं

क्यूँ भीतर- भीतर मचा  हाहाकार है
किसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की  पहली  झंकार है

अदृश्य- सी डोर से खींचता  है   कोई
अज्ञात - अब्धि में  सींचता  है  कोई
अनवगत - सा पथ दिखाता है  कोई
अप्रति मैं ही हूँ वही या है इष्ट कोई.  
  
 

Sunday, October 9, 2011

तुम्हें लगता है....

तुम्हें लगता है
बहती हूँ मैं
हवाओं की तरह
भरता रहता है
तुममें प्राण.......
तुम्हें लगता है
लहराती हूँ मैं
नदियों की तरह
भींगे-भीगें से
तरंगित होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
महकती हूँ मैं
फूलों की तरह
मादकता से
उन्मत्त होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
चहकती हूँ मैं
चिड़ियों की तरह
नाच उठता है
तुम्हारा मन-मयूर........
तुम्हें लगता है
चमकती हूँ मैं
सूरज की तरह
रोशनी से
भरे रहते हो तुम.......
तुम्हें लगता है
छिटकती हूँ मैं
चाँदनी की तरह
शीतलित होता है
तुम्हारा रोम-रोम.......
प्रिय !
ये प्रेमातिरेक है या
उसकी सहज प्रवृति
पर मुझे लगता है
कि ये है तुम्हारी
आत्म-विस्मृति...
या फिर
तुमने मान लिया है
कि मैं हूँ तुम्हारी
कोई निगूढ़ प्रकृति .
 

Wednesday, October 5, 2011

मेरे शब्द

मेरे शब्द
जिससे मैं कहती हूँ
दुनिया भर की
बेसिर-पैर की हर
छोटी-बड़ी बातें......
कभी खड़ी करती हूँ
बहुमंजली इमारतें
ताशों के मानिंद
तो कभी गढ़ती हूँ
रेशमी धुआँ से
लच्छेदार छल्लेदार इबारत...
अक्सर उसी में छुपकर
कर लेती हूँ चुपके से
उसी की इबादत..........
मेरे शब्द
जिसे मैं महसूसती हूँ
अत्यंत आंतरिक स्तर पर
जो अपने आवरण में
कभी शराफ़त से
तो कभी शरारत से
लपेटे रहता है मुझे.......
कभी वह किसी सच के
बेहद करीब जाकर
अड़ जाता है
तो कभी खुद पर बिठा
न जाने कौन-कौन सी
जहान की सैर
करा देता है मुझे.........
मेरे शब्द
शायद शब्द भी
कम पड़ रहे हैं
या मैं ही हूँ कोई
निःशब्द शब्द .

Thursday, September 29, 2011

ख़जाना

कल्पनाओं के पंख लग गये
मैं देखती रह गयी उन्हें
असीम फलक पर उड़ते हुए...
सपनों में रंग भरने लगे
मैं देखती रह गयी उन्हें
स्याह सिक्त होते हुए.......
आशाओं की कोख उजड़ गयी
मैं देखती रह गयी उन्हें
बेबस बाँझ होते हुए......
सोच को मार गया लकवा
मैं देखती रह गयी उन्हें
जब्रन जड़ होते हुए........
विचारों में युद्ध छिड़ गया
मैं देखती रह गयी उन्हें
धड़ा-धड़ धराशायी होते हुए...
मुझसे एक - एक कर
सब छुट रहे हैं या फिर
साज़िश तहत रूठ रहे हैं.....
अपने खालीपन को कैसे भरूँ
कुछ तो बहाना चाहिए
जिसमें मैं बहूँ .........
अब बिना बहाना किये
इस खालीपन के खज़ाने को
बाँटे जा रही हूँ
बस ...बाँटे ही जा रही हूँ...
मुआ कैसा ख़जाना है कि
खाली होने के बजाय
और भरता ही जा रहा है .

Friday, September 23, 2011

क़िस्मत

जब गद्दाफी की गद्दी  लुट  गयी
तो आप किस खेत  की  मूली हैं

अपने भूलभुलैया में हमें भुला दें
ग्रह-नक्षत्र आपको नहीं  भूली है

तिरेसठ को जरा छतीस होने दें
आपका चुराया सुख  ही सूली है

महामाया  लक्ष्मी  रास   रचाए
एक ही बाँह में   कहाँ  झूली   है

आसमाँ  से जमीं  पर  गिराकर
नाज़ो-नख़रा  पर खूब  फूली है

कब किस माथे तिलक सजा है
कब वहीं कालिख  और धूलि है

दुनिया देख रही  उस  राजा  को
जो अब  मामूली से  मामूली  है

अपने हक़-हिस्सा से ज्यादा लेंगे
तो किस्मत भी कीमत वसूली है .




 

Monday, September 19, 2011

गवारा

काँपी धरती
ह्रदय भी काँपा
मौत के ख़तरे को
हम सभी ने भाँपा
तन-मन जोर से डोला
फिर सच ने
वही अपना राज़ खोला
जिस घर के लिए
दुश्मन हुए भाई
नाते-रिश्तों की
खूब कीमत लगाई
या आजीवन खर्च किया
खून-पसीने की
गाढ़ी कमाई
कौन सा किया नहीं
तेरी - मेरी
उसी घर को
छोड़ने में तनिक भी
लगाई नहीं देरी
जान बचा भाग चले
खड़े हो गए
आसमान तले
ओह ! कैसा उभरा
दृश्य निराला
उस अपने घर में
एक पल किसी को
रहना हुआ न गवारा .
 
 
 
भूकंप को मैंने इतनी अच्छी तरह महसूस किया कि पोस्ट डालने से खुद को रोक नहीं पायी .

Friday, September 16, 2011

बोलो हे !....

वाक् मेरे वाग्बद्ध हो

क्यूँ सुर में झंकृत होने लगा है

वेदना अब वंदना बन

क्यूँ अश्रु सा बहने लगा है

व्यथा भी वितृण वाट्य बन

क्यूँ पुष्प सा खिलने लगा है...


बोलो हे ! विधि के विधायक

सघन वीथिका में दृग हमारे

क्यूँ कर दिए वृहद् इतना

उभरती हैं जो वृत्तियाँ आज ये सहसा

उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है ....


बोलो हे ! सर्व सत्व के सर्जक

गहन संवेदना में संस्पर्श हमारे

क्यूँ कर दिए सूक्ष्म इतना

उमड़ती है जो अनुभूतियाँ आज ये सहसा

उन्हें कुछ भिन्न सा छूने लगा है....


बोलो हे ! प्रणय के प्रदीपक

प्रेम की कैसी ये धारा

बह रही है मुझमें अब

निज है जो मेरा आज ये सहसा

क्यूँ निज में ही खोने लगा है।

 

 

 

वाग्बद्ध -- मौन ,   वितृण --- तृष्णा रहित ,  विधायक -- नियम बनाने वाला ,
सत्व -- अस्तित्व  , प्रणय -- प्रेम    
प्रदीपक -- प्रकाश फैलानेवाला 

Sunday, September 11, 2011

हे ! त्रायमाण .

अब   तो   मनु    नहीं     नादान
सृष्टि-ध्वंस   का   है  उसे  ज्ञान
जब प्रकृति पर भारी   है विज्ञान
तब तो प्रलय की आहट पहचान
 
भय   भी   हो   रहा  है   भयभीत
किसकी   हार  है  किसकी  जीत
कौन किसका कर रहा है उपहास
या चेतना का हुआ अकल्प ह्रास
 
पुनः  चीख   रही   है     चीत्कार
वही मांसल-चीथड़ों का व्यापार
फैला   लहू  है   दृश्य   विकराल
बह रही  है  आँसुओं  की    धार
 
कैसा   मचा   हुआ  है  हाहाकार
स्नेही-जन   की   अधीर  पुकार
तेरे   विश्व   में   हे !    भगवान्
निज प्राणों का  शत्रु  हुआ  प्राण
 
क्या कलियुग का यही अभिशाप
हर  ह्रदय   कर  रहा   है   विलाप
कैसा घृणित, कुत्सित अभियान
मानवता  का   है   घोर   अपमान
 
वासना-लिप्सा पर लगाओ लगाम
आगामी विस्फोटों को  दो  विराम
शरणागत हैं तेरे करो सबका त्राण
त्राहि   -  त्राहि       हे !    त्रायमाण . 
  

Friday, September 2, 2011

पिया जो नहीं...

साँझ     फिर   उदास     है
जिया जो   नहीं   पास   है
सब   लौट   रहे   घर   को
कोई कह दे   बेखबर   को
राह कहीं   भटक न   जाए
या   वहीँ   अटक न    जाए


रात     फिर      बेआस       है
पिया    जो    नहीं   पास   है
सब रीझती औ रिझाती होंगी
पिया संग  हँसती- गाती  होंगी
मैं   अँखियों में   तारा भरती
और चंदा को   निहारा करती


प्रात:    पिघलता      आस   है
धुँधला - धुँधला   उजास   है
हाय ! कैसा    ये   खग्रास है
कबतक   का      वनवास    है
जिया    आये   न    रास   है
पिया     जो   नहीं   पास   है.

Friday, August 26, 2011

कैसे मैं...

कैसे मैं कह दूँ
कि तुम क्या जानो
प्रेम की तीव्रता को
जबकि हर बार
मैंने छुआ है
तुम्हारे प्रबल वेग से
टूटती उसकी सीमाओं को...

कैसे मैं कह दूँ
कि मैं न बोलूं तुमसे
जबकि हर बार
मैंने देखा है
उलाहना के बोल को
मनुहार में बदलते हुए ....

कैसे मैं कह दूँ
कि तुम क्या जानो
ह्रदय में उठती हूक को
जबकि हर बार
मैंने सोखा है
तुम्हारे तुलनात्मक ताप से
कई गुणित प्रवाहित प्रेम को...

कैसे मैं कह दूँ
कि मैं न रूठूँ तुमसे
जबकि हर बार
मैंने चाहा है
मिलन की मधुर घड़ी
कभी न बदले
विदाई की बेला में....

अब कैसे मैं कहूँ
अनगिना अनकहा को
जबकि तुमने जो
धर दिया है
अधर को
........अधर पर .

Friday, August 19, 2011

अंधेरनगरी में....

अंधेरनगरी में भी
चलता है अंधेरखाता
अक्ल पर पड़े पहाड़ को
क्यूँ है उठाता
ये उल्टी गंगा
कौन है बहाता
खरी - खरी
किसको है सुनाता ?

अंधेरनगरी के
कानों में
तेल और घी भरा है
जूं - चीलड़ तक
नहीं रेंग रहा है
नाक तो कटी हुई है
पगड़ी भी उतरी हुई है .

अंधेरनगरी का कानून
अँधा बनकर अँधा बनाना
अंटी मारना , अंगूठा दिखाना
जूते चाटना , गाल बजाना
चूड़ियाँ पहनना , मक्खियाँ मारना .

अंधेरनगरी का है काम
सीधा उल्लू को सीधा करना
पकी खिचड़ी फिर-फिर पकाना
घोड़े बेच-बेच कर सोना
और कुत्ते की मौत मर जाना .

अंधेरनगरी में
नहीं निकलते चींटियों के पर
फटा करता है यूँ ही छप्पड़
एक ही लाठी से सभी हँकाते
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन जाते .

अंधेरनगरी है अपनी नगरी
छलकत जाए अधजल गगरी .


( मुहावरा का खेल )



क्षणिकाएँ

अपराध-बोध

अब तो हर वक़्त
अपराध-बोध होता है
हक़ की बात करूँ तो
संविधान का
पन्ना खुल जाता है.

बुनियाद

यह ऊँचे आदर्शों का
है तिलस्मी महल या
रंग-रोगन किया हुआ
है कोई भरभराता खँडहर
बुनियाद की न लें खबर
वर्ना फ़ैल जायेगा जहर.

बहुमत

दबंग पहलू से दबका पहलू
है अंगूठा दिखा रहा
माना कि तू बहुमत में है
पर मैंने तेरा चूल हिला दिया.

Friday, August 12, 2011

प्रीत की रीत

ऊँघता चाँद
ऊभ - चुभ तारे
ठिठका सा बादल
ठहरी हवाएँ
सिमटा अँधेरा
सहमी सी दिशाएं
साँस रोके हैं
बेला-चमेली
संग उनके
मौलीश्री भी हो ली..
नदी किनारे
चकवा उदास
अजब सी
अनबुझी प्यास
हीरे सा पल
यूँ ही बीता जाये
राह तक तक
वह रीता जाये.....
कलंक की मारी
चकई बिचारी
दे जी भर भर
रात को गाली...
कोसे कभी
भाग के लिखान को
कभी कोसे
विधना के विधान को..
प्रीत की रीत
यही जब होई
चकवा को
न मिले चकई
तब भी प्रीत
करे क्यूँ कोई ?


Friday, August 5, 2011

मेरा सावन

मैं बावरी
ढूँढती फिरूँ
मारी - मारी
उस बावरे को
जो न जाने
कहाँ है मगन..
किसकी प्रीत
बनी है बैरन...
हाय ! कैसा
पड़ा है बिघन
जो न लेता
मेरा सुमिरन...
बिछोही बिना
सूना - सूना है
ये चित - वन
बिसाहा बन बेधे
शीतल पवन
बिछुवा लगे
अपनी धड़कन...
मैं बावरी
बौराती फिरूँ
उपवन से मरू वन
विदाही मिले न
करूँ क्या जतन...
बरबस ताकूँ
वितत गगन
टंगा है जिसपर
काला - काला घन
मिलने को आतुर
विकल बसुधा से
अमृत बूँद बन
पर बावरे बिन
कैसे बरसे
मेरा सावन .

बैरन - शत्रु बिघन - बाधा
सुमिरन - याद , ध्यान
बिसाहा - जहरीला
विदाही - जलाने वाला
वितत - फैला हुआ

Friday, July 29, 2011

आत्म - रस

उगते सूरज को प्रणाम करूँ
जो डूब जाए तो राम-राम करूँ

क्यों किसी का कल्याण करूँ
बस अपना ही उत्थान करूँ

ये सोच सुबह से शाम करूँ
और सोच-सोच बिहान करूँ

बस इतना ही मैं काम करूँ
और तान चदरिया आराम करूँ

कोई टोके तो तुम-ताम करूँ
अपनी ऊँचाई पर बस मान करूँ

उपदेशों का केवल दान करूँ
और अपना ही गुणगान करूँ

काया - कष्टं का बलिदान करूँ
और आत्म रस का पान करूँ

जो माने उसका सम्मान करूँ
न माने तो घमासान करूँ .

Friday, July 22, 2011

पूर्णविराम

प्रायश:
मेरे पूर्णविराम का
परकाया गमन
प्रायोगिक नहीं
प्रायोजित होता है
कभी अल्पविराम में
कभी योजक चिह्न में
कभी प्रश्नवाचक चिह्न में
कभी विस्मयाधिबोधक चिह्न में
तो कभी किसी उद्धरण चिह्न में..
कभी तो नियमों के पार जाकर
अपने स्थान पर
क्रमागत बिन्दुओं को
इसतरह सजा देता है कि
उसे भरने में
मैं शून्य हुए जाती हूँ
और न जाने
कहाँ से आ जाता है
उस शून्य के भी आगे
अनंत का चिह्न......
ये कौन सी पहेली है
ये कैसा खेल है
कोई भूलभुलैया भी होता तो
पता होता कि इसी में
खोया है कहीं पूर्णविराम
या मेरा परकाया गमन
अनंत में हो जाता तो
मिल जाता पूर्णविराम.......
इस नयी-नयी काया में
आत्मा के साथ यात्रा का
हो जाता सुखद अवसान
दम साध , दम भर
कर लेती मैं आराम
पर न जाने क्यूँ
सारे चिह्न
प्रायोजित होकर
बारम्बार मेरी काया में ही
प्रवेश कर जाते हैं
मैं सोचती रह जाती हूँ कि
क्यों मेरा गमन
फिर किसी
पर काया में हो जाता है
और हर बार की तरह
एक बार फिर
मेरा पूर्णविराम
मुझसे ही
कहीं खो जाता है.

Saturday, July 16, 2011

उद्यम

कम नहीं हैं
अपेक्षाएं
खुद से ही....
चुनौती की
दोधारी तलवार
आतंरिक एवम
बाह्यरूप से....
खुद को
साबित करने का
एक जूनून भी....
घड़ी-घड़ी घुड़की
घुड़दौड़ में
अव्वल न सही
जगह सुरक्षित कर
दौड़ते रहने का...
साथ ही
लंगड़ी मारने में भी
कुशल होने का......
आखिर
आँख खोलने से
अब तक
पिलाया गया
हर घुट्टी का
असर है.....
जो मूर्च्छा में भी
दोहरे दबाव को
घुसपैठ करा
किसी भी कीमत पर
ऊँच-नीच करके
सफलता के झंडे को
ऊँचा किये रहता है...
और
तराजू के पलड़े को
बराबर करने के लिए
राज़ी-ख़ुशी से
खुद को ही
काट-काट कर
बोटी-बोटी करना
सफल उद्यम
बन जाता है .

Friday, July 8, 2011

नियत ताप पर

नियत ताप पर
उबलते विचार
भाप बन उड़ जाते
या जल जाते तो
मर जाता मन
नौ रसों के साथ..
और छूट जाता
बेकार सा करते रहना
निरर्थक जतन...
जीवन सरल हो जाता
झोपड़ी महल हो जाता.
शून्य भी दिखता
कुछ भरा-भरा
सांय-सांय करती
हवाएं भी
एक छोर से दूसरे छोर तक
करती रहती अठखेलियाँ
जिसके संग
मन भी हवा बन जाता
और रह जाता
अपने बालपन में ही.
सच! सबकुछ
कितना सरल हो जाता.
पर
नियत ताप पर भी
उबलते विचार
उफन-उफन कर
लगते हैं गिरने
बूंदों में ही सही
और हर बूंद
बराबर हो जाता है
एक-एक
परमाणु बम के.....
अपने अन्दर दबाये हुए
उस विध्वंसात्मक
विपुल ऊर्जा को..
जो परिवर्तन के लिए
हर हाल में तत्पर है
अपने नियमानुसार...
उसी नियत ताप पर
उसे बदलना भी होगा
सृजनात्मकता में...
ताकि
नियत ताप पर भी
जनमती रहे
कालजयी-कृतियाँ.

Saturday, July 2, 2011

अर्पण

अभिसंयोग के
उन अभिभूत क्षणों में
उन....उन..... क्षणों में
अभिज्ञात होता है मुझे
अतिशय अलौकिक स्पर्श
मानो मुझमें ही कोई
या.....या......या ....वही
आकार लेता है
वह अद्भुत,मृदु छवि
वह..... मनोहर काया
प्रेम करता है.... मुझे...
...प्रेम.....प्रेम.....प्रेम....
...हाँ.....वही... दिव्य प्रेम.
...बरसती रहती है...
....बूंदे......बूंदे.......बूंदे....
..बूंदे.....आनंद की बूंदे..
..भींगता रहता है..
...तन...........मन....
..और.......और......
........और.............
मैं.........रहती हूँ
..उन्ही क्षणों में...
............हर क्षण .
.......वह क्षण है........
हर क्षण......हर क्षण....
....उस क्षण पर.....
हो गया है...मेरा....मेरा....
..ये.............. जीवन
....समस्त .......जीवन
.................अर्पण .




 

Friday, June 24, 2011

प्रेरणा

अज्ञात किसी क्षण सहसा
क्यों बेचैन हो उठता है मन
और अचानक कहीं गहरे में
उभरकर बिखरने लगती है
संवेदनाएं बेतरतीब.....
मैं उन्हें समेटना चाहती हूँ
तुम्हारे आशा के अनुरूप
अभिव्यक्ति देना चाहती हूँ
उन अव्यक्त विचारों को
जो अभिशप्त है मौन के लिए
और नियति बन जाती है जिनकी
वेदना-कुछ अजीब........
मैं उन्हें सहेज लेना चाहती हूँ
आत्मस्वरूप अहसास के
गहरे अनुभूतियों से
परन्तु अभिव्यक्ति कैसे दूँ?
जब मुझमें मैं ही न रही
क्योंकि आज जो सोचती हूँ
वो चिंतन तुम्हारे हैं
लिखती हूँ तो
शब्द भी तुम्हारे हैं
जीना चाहती हूँ तो
जीवन की शक्ति भी
या यूँ कह लो कि
सम्पूर्ण जीवन में
समा गए हो तुम
प्रेरणा बन कर .
 

Friday, June 17, 2011

दिवा-फिल्म

माना कि
खुदा मेहरबान है
तो.................है...
ये भी माना कि
आपसे मिली है मुझे
चार दिनों की चाँदनी...
पर अब
मेरी लाठी मेरा सूरज
और मेरा चाबुक देख
ऊँट करवट बदलेगा.....
बाली सा वरदान है
जगत जनार्दन से
गजब गठबंधन है
बहुमत है बहुबल भी है....
चाहे तो ग्रह-नक्षत्र
इधर से उधर हो जाए
ग्रहण लगने की कोई
गुँजाइश ही नहीं है......
अनहोनी के अंदेशा से ही
मदमस्त हाथी बन
रात गए रौंद सकता हूँ
आपके अरमानों को.......
मेरे इस
हास्यास्पद,लज्जास्पद लीला से
भले ही आपकी
आँखे या छाती
फटे तो आपकी बला से.......
बेलगाम घोड़ा हूँ तो क्या
आपका नकेल कसता रहूँगा...
हमारा लोकतंत्र फले-फूले
सो जंगल-नीति अपनाना है
मिश्री-मलाई से चुपड़ कर
आपको बहलाना-फुसलाना है... 
एक बार फिर
ये चाँदनी हमें ही दें आप
ऐसा दिवा-फिल्म दिखलाना है...
हम भी क्या करे
ये साम,दाम,दंड, भेद
का ही तो ज़माना है.
 

Saturday, June 11, 2011

परमारथ


मेरे अंधे अनुचरों
मैं अति महत्वाकांक्षी  
सिद्धि सिद्ध कर
मैंने दिया तुम्हें
वो दिव्य दृष्टि
जिससे तुम मुझे
देख सको
अपनी-अपनी
आकांक्षा के आईने में....
मेरी महानता है कि
आईने के पीछे चढ़ा
केसरिया मुलम्मे को
रगड़-पोछ कर
हो गया मैं
थोड़ा पारदर्शी......
देखो मेरा विशाल साम्राज्य
कब्र में लेटा सिकंदर भी    
रश्क करता होगा
इसे देखकर.......
थोड़ा और
पारदर्शी हो जाऊं तो
कब्ज़ा ही न जमा लूँ
पहले पायदान पर......
आओ कुछ कर्म करें
एक लम्बी सांस
अपने अंदर करो
तुम अपनी तिजोरी से
और तुम
अपनी अंटी से
परमारथ के  लिए
कुछ बाहर करो.........
बाजार में
बड़ी मारामारी है
देश में या तो बेकारी है
या केवल भ्रष्टाचारी हैं...
मेरे पीछे चलना
तुम्हारी लाचारी है.....
और तो और    
विरोधियों के हाथ
सान धरा आड़ी है......
हमें मिलकर
संभलकर चलना है
काले-गोरे का
भेद मिटा
परमारथ के लिए
एक-दूसरे को
छलना है.


         

Friday, June 3, 2011

अंगूठा

मेरे बारे में
बहुत कुछ पता रहता है
दूसरों को ......
जो अति गुप्त होता है या
अतिरेक का शिकार होता है...
और मैं
सशंकित रहती हूँ हमेशा
अपने ही बारे में....
न जाने किस
बेतार के तार से
जुड़ें हैं सभी.......
बिंदास होकर
कह देते हैं मुझे ही
मेरे बारे में......
जो दिखता है वो भी
जो नहीं दिखता है,वो भी
और मुझे
चुप होना पड़ता है.....
सोच की मरियल घोड़ी को
थोडा इधर,थोडा उधर
दौड़ना पड़ता है....
वाकई!
क्या वे सही है
जो अपनी राय से
तय करते हैं मुझे.....
फिर मैं ?
मैं क्या करती हूँ
अंगूठा ही तो लगाती हूँ
जो मैं नहीं हूँ
उसपर भी .

Friday, May 27, 2011

प्रेम-पुलक

प्रेम धागा जो कच्चा हो तो
मोटे नायलान   से    गूँथवाऊं
फिर भी  जो   टूट  जाए  तो
फेवी-क्विक      से     सटवाऊं


प्रेम पंथ ज्यों हो कठिन तो
मखमली  कालीन  बिछवाऊं
तिस पर भी    कुछ चुभे तो
हवाई-मार्ग   यूज    में   लाऊं
 
 
प्रेम गली  अति सांकरी तो
उसपर   बुलडोजर   चलवाऊं
फोर-लेन पर जाम लगे तो
चार   ओवर-ब्रिज    बनवाऊं


प्रेम  जो   बाड़ी    उपजे  तो
हाई-टेक    खेती     करवाऊं
यहाँ जगह जो कम पड़े तो
चाँद पर भी कब्ज़ा  जमाऊं


प्रेम जो  हाट   बिकाय  तो
कौड़ी के भाव खरीद लाऊं
हवाला   से    स्विसबैंक  में
व कुछ चैरिटी  में  बटवाऊं


और अंत में
 
प्रेम का पाठ   जो   पढ़े  तो
स्वयंभू पंचायत    बिठवाऊं
प्रेमी-युगल   बच     न  पाए
सो ऑनर किलिंग  करवाऊं.  
  
 

Friday, May 20, 2011

सुपरनोवा

यदि
मेरे ऊपर
अल्पमात्र उपलक्षित 
मत्स्य रूपी
शब्द होते तो
जल भरे थाल में
बनते प्रतिबिम्ब को
देखकर कर लेती 
लक्ष्य-भेदन
और प्रमाणित करती
अपनी विद्वता.....
पर
ऊपर तो टंगा है
शब्दों का
अंतहीन आसमान
जिसे बारंबार
भेदना है मुझे
बाण रूपी लेखनी से......
जीर्ण-शीर्ण पड़े शब्दों में
संचार करना है
अपने प्राण का .....
ताकि
सुपरनोवा बनकर
ब्लैक-होल में
समाने को अभिशप्त
शब्द भी जिए
दीर्घायु होकर
और रचना-क्रम
चलता रहे
यूँ ही अनवरत . 
  
 

Saturday, May 14, 2011

दृग-मिचाव

कृपया किंचित  नेत्र  न   गोल करे
ये   कविहृदय    है,     कल्लोल  करे
 
 
भांति-भांति  कल्पनाएँ-कपोल  करे
ये   कौतुक-क्रीड़ा  है,   न  तोल करे
 
 
मरुत-मार्तण्ड    से,       होड़   करके
श्रृंखल-श्रृंखला     को,   तोड़   करके
 
 
वह्निमुखी  सा,    घन-घोर    करके
चले ,   चलन   को,    मरोड़   करके
 
 
पूर्वाग्रही   हो,    न     उपहास्य    करें
है सामर्थ्य  तो,  उचित भाष्य   करें
 
 
भावोन्मत्त  हो,  आत्म-आमोद करें
चैतन्य दृग-मिचाव है,   विनोद करें.
 
 
  
मरुत---हवा ,        मार्तण्ड ---सूरज ,       श्रृंखल-- -व्यवस्थित और ठीक ,           श्रृंखला--- कतार,  वह्निमुखी---ज्वालामुखी  ,     घन-घोर---भीषण ध्वनि ,        चलन----गति,प्रथा ,रिति-रिवाज
,    भाष्य-- -गूढ़ बात की विस्तृत  व्याख्या                                                                                        
दृग -मिचाव----आँख मिचौली का खेल .
  

Friday, May 6, 2011

खाई

रिक्तता की खाई में 
पसरी हुई है
मौन की परिभाषा...
रुद्ध है समस्त
मनोधारा-मनोकांक्षा..
शनैः-शनैः
टूटता मनोबल...
टूटे मौन तो
मुखरित हो मनोवृति
और संप्रेषित करे 
मनोवेग को
विचारों के रुखड़े-रूढ़ी से..
जिससे रुषित शब्दों को
मिले पुनर्जीवन-पुनर्वचन...
अन्यथा
चिर-काल से
शिखर पर खड़ी
सृज्य-सृष्टि
अभिवयक्ति को कहीं
गर्भ में लिए 
उसी खाई में न 
छलांग लगा दे .

रुखड़े-रूढ़ी---खुरदरा चढ़ाई
रुषित---दुखित
सृज्य-सृष्टि---सृजन करने योग्य रचना 

Saturday, April 30, 2011

समग्र-सार

ढाई - अक्षर   की  कथा
आधा सुख,आधी व्यथा


चार   क्षणों  का   जीवन
कभी विरह,कभी मिलन

  
मोम-प्रस्तर  से ये  शब्द
आज चकित,कल स्तब्ध


अर्थ  से  भी    गहरा  अर्थ
कभी उपयोगी,कभी व्यर्थ


मेघाच्छन्न है हृदयाकाश
कभी अँधेरा,कभी प्रकाश


समग्र-सार  है   यथातथ्य
आधा मिथ्या,आधा सत्य . 

Friday, April 22, 2011

ह्रदय-गीत

होरा हूँ मैं होरा हूँ
हर क्षण बजती होरा हूँ
मधुर स्वर से अंतर्मन में
ब्रह्मनाद सा हर एक कण में
हर क्षण बजती होरा हूँ
होरा हूँ मैं होरा हूँ.



कोरा हूँ मैं कोरा हूँ
हर क्षण बनती कोरा हूँ
हर प्रसून के प्रस्फुटन में
सृजन के हर एक स्पंदन में
हर क्षण बनती कोरा हूँ
कोरा हूँ मैं कोरा हूँ.



डोरा हूँ मैं डोरा हूँ
हर क्षण बँधती डोरा हूँ
धरा-गगन के आकर्षण में
चराचर के हर एक विचलन में
हर क्षण बँधती डोरा हूँ
डोरा हूँ मैं डोरा हूँ
हर क्षण बँधती डोरा हूँ.



होरा----घंटा
कोरा----नया
डोरा----प्रेम का बंधन  

Friday, April 15, 2011

देखना है

एक झोंका
हवा का
हवा दे गयी 
दबी चिंगारी को ..
या
मरे बीज में
भर प्राण
दे गयी 
अपनी गति
अपनी उर्जा ...
देखना है
लगती है आग
निर्जन में..
या
बनता है
कोई वटवृक्ष . 

Friday, April 8, 2011

मुहर

पंचजन्य तो
फूँक दिया है मैंने 
हुँकार अभी बाकी है....
मंजिल तो 
दिख ही रही है 
पहुँचना अभी बाकी है ...
दूरी तो
तय कर ली है हमने
हाथ का फासला बाकी है ...
रास्ते तो
फूलों से भरे है
कांटा चुनना अभी बाकी है ...
कदम तो
डगमगा रहे हैं पर
उन्हें घसीटना बाकी है ....
यह तो
प्रमाणित सत्य है
पर निर्विवाद होना बाकी है ..
हाँ!
हस्ताक्षर तो
कर दिये है मैंने और 
मुहर लगनी अभी बाकी है....  

Wednesday, March 23, 2011

कलई

निजता के आधार पर
निहायत गुप्त बातों में
बेईमानी का दिखना
प्रायः नगण्य होता है .......
पर मैं तो देखती रहती हूँ
स्वहित के मामले में
वह कैसे फन उठाती है 
और मैं कितनी चालाकी से 
उसकी फुफकार को
हुकुम मानते हुए उसे
दूध-लावा चढ़ाती हूँ ...........
भले ही आंतरिक रूप से कायर
पर बाह्यरूप से मैं ठहरी
अहिंसा की पुजारी
फन कुचलने से बेहतर
यही है कि उसकी
सारी सुख-सुविधा का
भरपूर ख्याल रखते हुए
अपना जंगल-राज दे दूँ ....
ताकि वह सार्वजानिक रूप से
विद्रोह न कर दे........
जिसको दबाने में कहीं
मेरी ईमानदारी की
कलई न खुल जाए . 

Saturday, February 26, 2011

क्लोनिंग


हिटलर जीन के
आदेश पर
प्रतिकृतिकरण
भ्रष्ट मानव का........
अनियंत्रित विभाजन
कैंसरयुक्त कोशिका की तरह
मेटास्टैसिस की
भरपूर क्षमता लिए हुए...
हाँ ! कुछ-कुछ
हवा से फैलने वाला
संक्रामक रोग सा.........
आह !
इस कलयुगी प्रयोगशाला में 
परीक्षण मानव पर ही   
जो छलांग लगा रहे हैं
विकास के चरम बिंदु से
पशु-रेखा के नीचे 
और शुभचिंतक बन
स्वजनों को साथ लिए ...
वाह !
भौतिक उपभोग का
सबसे सरल तथा 
उपयोगी विधि  
आत्मा का घोटाला कर
सबकुछ अपने पेट में डालना
जो तोंद दिखने लग जाये तो
कालिख में मुँह छुपा लेना .......
हाय !
स्वपोषण के लिए
मानवता का ऐसा दोहन....
आज हर तरफ दिख रहा है
भ्रष्ट मानव का
प्राकृतिक क्लोनिंग
सौ फीसदी शुद्धता वाला......
परिणाम
बुरी तरह से घिरे हैं हम
व्यभिचार और भ्रष्टाचार के बीच
जो खुले बाज़ार में नंगा हो
दिखा रहा है अपना
विध्वंसक तांडव.


एक तड़क तड़का और .......

भ्रष्टाचार के गर्म तवे पर
कुछ ज्यादा रोटी सिंक रही है
लूट सको तो लूट लो भाई
यह मुफ्त में ही बिक रही है .







Thursday, February 17, 2011

स्फिंक्स

वक़्त-बे-वक़्त
मेरी आतंरिक आवश्यकताएँ
करने लगती है
सुरसा से प्रतिस्पर्धा.....
चतुर-बहवे की चतुराई को भी
सूक्ष्मता से शिकस्त देते हुए...
सोने की लंका की क्या बिसात
आकाश-महल बनाने की
जिद लिए हुए ...............
देखते-ही-देखते 
मेरी महत्वाकांक्षा
पिरामिड का शक्ल
लेने लगती हैं............
आधार इतना बड़ा कि
उसकी संतति भी
रह सके सदियों तक........ 
लेकिन ऊपरी छोर
इतना नुकीला कि
वो भी टिक न पाए ............
और मैं स्फिंक्स बन 
करती रहती हूँ रखवाली
कहीं मेरे ममी पर ही
ये खड़ी न हो जाए.
चतुर-बहवे ---हनुमान

Monday, February 7, 2011

दबंग यादें

मुई यादें हमेशा
पीठ पीछे करती हैं वार....
कई-कई तीर बिंध जाते हैं 
छाती में और
उसके अन्दर का यन्त्र
कुछ पल के लिए
टीस के मारे 
अपना काम भूल जाता है...
अतीत के चाक पर
समय बेतरतीब नाचने लगता है
घटनाएँ दर्शक बन
अगली पंक्ति में बैठने को
करने लगती हैं मारामारी
कुछ दबंग यादें
अपना रौब दिखाकर 
चाक के बीचो-बीच
बैठ जाती हैं
जहाँ से कोई भी 
माई का लाल उठा न पाए...
उसकी खुशामद में 
दासानुदास बन जाते हैं
सोच के यन्त्र
अब चढावा चढ़ाओ
सारी सोच का
तब तक चढाते रहो
जब तक वे खुश न हों ...
आत्म शोषण का
एक रोमांचक खेल
भावनाएं एक अति से
दूसरे अति पर कूदती हुई
हम निरीह होकर
सिर्फ देखते रहते हैं....
दबंग यादें -इतनी बाहुबली कि
अतीत को भी
वर्तमान बनाने का
दम- ख़म रखती हैं....
और हम
उसी यंत्रणा-काल जनित
सुख-दुःख के भंवर में
उलझते चले जाते हैं . 
   
आइये ...इस बसंती -बयार में कुछ मिजाज़ बदला जाये ......................

Monday, January 31, 2011

विजिगीषा

घनघोर बियाबान
घुप्प अँधेरा
घातक जीव-जन्तु
घड़ी-घड़ी घुटन से  
घिघियाती हुई........  
मैं -एक ठूँठ
अपने आखिरी पत्ते को 
कसकर......पकड़ी हुई
पास पड़े एक
पत्थर को देखकर 
मन-ही-मन
सोचती हुई कि--
कभी तो
किसी के पैर से छूकर
शापमुक्ति संभव है ....
पर मुझे तो
अपने उसी आखिरी
पत्ते के सहारे ही
वसंत की राह देखनी है
ताकि मैं फिर से
हरी -भरी हो सकूँ
उस बियाबान में भी
जिजीविषा से भरी हुई
विजिगीषा का
सन्देश देते हुए .........
 
जिजीविषा -अदम्य जीने की इक्क्षा
 विजिगीषा -विजय पाने की इक्क्षा.

Sunday, January 16, 2011

दावा

जितनी रहस्यमयी है
घर से बाहर की दुनिया
उससे कहीं ज्यादा
रहस्यमय है -ये घर
ऐसा भूलभुलैया
जिसका सबकुछ
कहीं खो गया है...
इसके नक़्शे में तो
सात सौ खिड़की और
नौ सौ दरवाजों का जिक्र है....
मानो समय
पृथ्वी के गर्भ में
छोड़ गया हो
साँस के साथ जनमती आशा 
उसी के साथ मरती भी ....
देह की झुर्रियां गवाही देती
और भी रहस्यमयी ...
घर का कोना -कोना
एक अनसुलझी पहेली
जिसे सुलझाते-सुलझाते ...
उलझती मैं........
वो सुई भी खोई है
इसी घर में
जिससे मैं कभी
सिया करती थी
समय के टुकड़ों को...
अधूरी पड़ी मेरी चादर
थोड़ी ढकी मैं
थोड़ी उघडी...
घर की तरह ही -
रहस्यमयी.......
दावा करती हुई 
कि--------मैं हूँ .