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Friday, October 15, 2010

रचना

जब अपना ही मौन
निष्क्रिय कर देता है स्वरतंत्र को
जब अपनी ही सोच
दिखाने लगती है त्रिआयामी चलचित्र
जब अपने ही आँखों में
घूमने लगता है अपना विकृत चेहरा
जब अपनी ही चीख
गूंजने लगती है अपने कानों में
जब अपना ही क्रोध
अंग प्रत्यंग को जलाने लगता है
तब मैं अतिशय कोशिश करती हूँ
सामान्य से सामान्य रहने की
नरम आवरण के अन्दर
बहुत कुछ टूटने लगता है
बार बार होता ये विध्वंस
सृजनात्मक होता तो एक बात होती
पर मेरे विचारों का महल
मलवों में तब्दील होते रहते हैं
मलवे, मलवे ही मलवे
जिसके नीचे दबी मैं
सोच रही हूँ
एक नई सृष्टि की ही
क्यूँ न रचना कर दूँ .

3 comments:

  1. अमृता जी,

    हमेशा की तरह शानदार रचना.........मैं तो आपका प्रशंसक हो गया हूँ.........आपने जिस कतार की बात कही वो तो भ्रम मात्र है.....आप जैसे रचनाकार के सामने मेरे जैसे लोगों की क्या हस्ती है.......हाँ यहाँ कुछ लोग अवश्य है, जो गुटबाजी करते हैं और अपने को ब्लॉगजगत का ठेकेदार समझते हैं.....पर मैं इन सब चीजों से दूर हूँ मैंने अपने ब्लॉग जिनमे तीन तो उन महान शख्सियतों को समर्पित हैं, जिन्हें मैं बहुत पसंद करता हूँ और उनका प्रशंसक हूँ.........बाकी एक जज़्बात है, जिसमे जो दिल से जज़्बात उठते है वो ही पोस्ट करता हूँ मैंने ये ब्लॉग अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए ही बनाये थे......आप जैसे कुछ कद्रदान हौसलाफजाई करते हैं ....तो अच्छा लगता है....और कोशिश करता हूँ की आगे भी अच्छा ही करता रहूँ|

    रही बात फोटो की तो मेरा वश चलता तो मैं तो यहाँ अपना नाम भी न देता....क्योंकि नाम के साथ ही आदमी मज़हब और जातियों में बंट जाता है......खैर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता आप तस्वीर लगायें या नहीं...ये तो आप पर ही मुनहसर है|

    अब बात आपके लेखन की तो मैं आपके लेखन का मुरीद हूँ .......और प्लीज़ इसमें कभी भी समझौता नहीं करें.........आप अध्यात्म की गहराई की बात करती हैं ....आपकी लेखनी आपको औरों से अलग खड़ा करती है.....ऐसे ही लिखती रहिये ....मेरी शुभकामनाये आप के साथ है |

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  2. tadpan , chhatpatahat hi karva deti hai kuchh rachna

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  3. नरम आवरण के अन्दर
    बहुत कुछ टूटने लगता है.....
    -----------------------------
    बेबाक ....

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