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Sunday, August 29, 2010

गीली मिटटी

तुम  मूर्तिकार
गीली मिट्टी मैं
अपनी अतृप्त
इक्षाओं के ढांचें पर
लगाकर मुझे
बनाते हो
खुबसूरत मूर्ति
सपना कल्पना व
वासनाओं से
सजाते हो मुझे
सम्पूर्ण कुशलता का
उपयोग कर
स्वांग रचते हो
मुझमें प्राण भरने का
मैं जानती हूँ
मेरी पूजा भी करोगे
सबके साथ तुम
उत्सव भी मनाओगे
फिर मैं विसर्जित
कर दी जाऊँगी किसी
गन्दी नाली नदियों में
मैं मृणमूर्ति पुनः
मृणमय हो जाऊँगी
और तुम्हारे हाथ
फिर गीली मिट्टी ही
रह जायेगा .

7 comments:

  1. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 27-10 - 2011 को यहाँ भी है

    ...नयी पुरानी हलचल में आज ...

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  2. बेहतरीन कविता।

    सादर

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  3. मैं आपके ब्लाग पे नइ पुरानी हलचल के माध्यम से पहली बार आया हूं दिल को छूने वाली ये रचना है...
    कभी मेरे ब्लाग पे भी पधारें आभार ...
    सदस्य बन रहा हूं।

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  4. wah! bahut khoob....


    www.poeticprakash.com

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  5. मै थोड़ी देर आपकी जगह पर रहकर इन शब्दों को जीने की जुर्रत कर रहा हूँ ....

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  6. सारगर्भित .. शायद इसीलिए उस मूरत को ह्रदय में बिठाने का साधन करते हैं ... ताकि विसर्जन न करना पड़े .. और मन सना रहे उसी गीली मिटटी से .. उसकी सौंधी खुशबू से ..

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