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Sunday, August 29, 2010

उधार

कहो तो कुछ शब्द
मैं तुम्हें उधार दूँ
जिससे तुम प्रेम को
अभिव्यक्त कर सको
जब तुम प्रेम में होते हो
आँखों से कुछ बहता है
तुम तरंगित हो उठते
थरथराते हाथों से तुम मुझे
समेट लेना चाहते  हो
कंपकंपाती  देह  मेरे अस्तित्व  में
मिल जाना चाहती है
तुम केवल  इतना चाहते हो
कि यह पल थम सा जाये
मैं साक्षी  बन जाऊं
तुम्हारे  इस प्रेम का
कहो  तो कुछ ही शब्द
मैं तुम्हे  उधार  में दूँ
जिससे तुम  कुछ  कह सको
जो गूंजता  रहे अनवरत
मेरे ब्रम्हांड  में
ओओम् की  तरह .

गीली मिटटी

तुम  मूर्तिकार
गीली मिट्टी मैं
अपनी अतृप्त
इक्षाओं के ढांचें पर
लगाकर मुझे
बनाते हो
खुबसूरत मूर्ति
सपना कल्पना व
वासनाओं से
सजाते हो मुझे
सम्पूर्ण कुशलता का
उपयोग कर
स्वांग रचते हो
मुझमें प्राण भरने का
मैं जानती हूँ
मेरी पूजा भी करोगे
सबके साथ तुम
उत्सव भी मनाओगे
फिर मैं विसर्जित
कर दी जाऊँगी किसी
गन्दी नाली नदियों में
मैं मृणमूर्ति पुनः
मृणमय हो जाऊँगी
और तुम्हारे हाथ
फिर गीली मिट्टी ही
रह जायेगा .