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Wednesday, April 7, 2010

तुमने कहा

तुमने कहा -
जिस आवृति से
विभिन्न तरंगदैर्ध पर
उठता गिरता है
तुम्हारा विचार
जिससे आवेशित होती हो
कम्पित होती हो
यथावत ईमानदारी से
रख दो उन विचारों को
कविता का सृजन होगा
पर क्यूँ दिखता है
सबकुछ धुंँधला धुंँधला
मेरे विचार ओढ़े हैं
मेरी कड़वाहट को
या मेरी आँखों पर
है काली पट्टी
या आईना पर
चढ़ गया है कल दोतरफा
कैसे दिखेगी कविता
अपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
निश्छल निष्कलंक .

9 comments:

  1. अमृता जी आपके ह्रदय की अमृत वर्षा ..और वर्षा दोनों का आनंद ले रहें हैं .....
    बहुत सुंदर रचना ...आप जो लिखेंगी वही अमृतमयी कविता है ........

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  2. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  3. बेहतरीन कविता.

    सादर

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  4. मन की तह तक जाती पंक्तियाँ.बहुत सुन्दर.

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  5. amrataaji amrit barsaatihui sunder bhavbeeni rachanaa.badhaai aapko.



    please visit my blog.thanks,

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  6. निश्छल निष्कलंक .... और निर्विकार आत्मा ने जो भी कहा ....अनहद ..अनहद

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  7. कैसे दिखेगी कविता
    अपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
    निश्छल निष्कलंक

    बस लिख दो
    हम उसी को पढ़ने
    आपके ब्लॉग पर आये हैं

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