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Wednesday, December 22, 2010

विरोधाभास

क्यूँ मैं कहूँ
पारदर्शी हो तुम 
पूरे सौ प्रतिशत
जबकि तुममें
दिखती हूँ मैं...
पर कहीं न कहीं
है विरोधाभास
जहाँ मेरी धडकनें
मिल गयी है तुमसे
वहीँ एक -एक विचार
कहीं छूट गए है...
मैं अनुभव कर सकती हूँ
तुम्हारी विराटता का
अपनी ग्राह्यता के अनुसार
ग्रहण कर सकती हूँ तुम्हें 
मिलावटों से निथारते हुए...
पर सांसो की डोर
बंधी है तुमसे ...
और मैं लेना चाहूंगी
जन्म-जन्मान्तर तक जन्म
तुमसे बंधने के लिए
या अपनी मुक्ति के लिए
या फिर
विरोधी सत्य के लिए ?
 

Thursday, December 2, 2010

इतर

कोई परिग्रह नहीं
परिग्रह तो दूर की बात
कोई आग्रह भी नहीं ...
कोई प्रतिबंध नहीं
प्रतिबंध तो दूर की बात
कोई अनुबंध भी नहीं ...
कोई विकांक्षा नहीं
विकांक्षा तो दूर की बात
कोई आकांक्षा भी नहीं ...
कोई परिवर्जन नहीं
परिवर्जन तो दूर की बात
कोई आवर्जन भी नहीं ...
कोई विक्षोभ नहीं
विक्षोभ तो दूर की बात
कोई क्षोभ भी नहीं ...
कोई प्रतिलंभ नहीं
प्रतिलंभ तो दूर की बात
कोई उपालंभ भी नहीं ...
कोई परिसंवाद नहीं
परिसंवाद तो दूर की बात
कोई संवाद भी नहीं ....
प्रिय! इन सबसे इतर यदि
हम एक-दूसरे में
प्रतिपल प्रमत्त हों ...
हमारा रोम-रोम
प्रतिक्षण प्रस्फुटित हो...
और हमारी तरंगें
प्रतिसम प्रसक्त हों ...
तो निःस्संदेह
प्रेम ही है ...

Wednesday, November 17, 2010

औचित्य .......

खोजती रही मैं ..
अपने पादचिह्न
कभी आग पर चलते हुए
तो कभी पानी पर चलते हुए
खोजती रही मैं ..
अपनी प्रतिच्छाया
कभी रात के घुप्प अँधेरे में
तो कभी सिर पर खड़ी धूप में
खोजती रही मैं ..
अपना परिगमन -पथ
कभी जीवन के अयनवृतों में
तो कभी अभिशप्त चक्रव्यूहों में
खोजती रही मैं..
अपनी अभिव्यक्ति
कभी निर्वाक निनादों में
तो कभी अवमर्दित उद्घोषों में
खोजती रही मैं ..
अपना अस्तित्व
कभी हाशिये पर कराहती आहों में
तो कभी कालचक्र के पिसते गवाहों में
हाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
नियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य .

Monday, November 8, 2010

अज्ञात नदी

ऐसा नहीं हो सकता कि
कोई अज्ञात नदी
पृथ्वी तले चुपचाप बहती हुई
समंदर की तरफ बढ़ी जा रही हो
हालाँकि उसका सफ़र
थोड़ा मुश्किल भरा होगा
उसे कुछ ज्यादा
वक्त लग रहा होगा
फिर भी बहती चली जा रही है
धीरे -धीरे , धीरे -धीरे
अपनी व्यथा को
स्वयं में ही समेटे हुए
हाँ प्रिय !
वो नदी मैं ही हूँ और
बाँहें फैलाये हुए तुम - समंदर
मुझमें ठंडा उन्माद है
तो तुममें उतप्त धैर्य
समय के साथ एकाकार होकर
मैं आ रही हूँ , आ रही हूँ ....
राहगीरों की प्यास बुझाते हुए
तुम भी अपनी सीमाओं को
और फैलाओ , और फैलाओ ....
ताकि जब हम मिलें तो
क्षितिज भी शेष न रहे .

Wednesday, November 3, 2010

सोचती हूँ ........

दीवाली है
सोचती हूँ
सबों के साथ
उत्सवी उमंग में डूब जाऊं
संभृत समस्याओं को छोड़
सफाई पुताई में लग जाऊं ....
मन के कचड़े को
कहीं दूर ले जाकर
सुरक्षित निपटान करूँ
कुछ चटकीले रंगों से
नए कलेवर में
रंग रोगन करूँ ......
खुशियों की रेवड़ियाँ
जी भर के खाऊं खिलाऊं...
सभी तो
घर से बाहर तक
दीपों से रोशनी फैलाते हैं
अपने अन्दर के शोर को
पटाखों से दबातें हैं
अतृप्त तृष्णा को
छप्पन भोग लगाते हैं
सोचती हूँ ......
कभी किसी भी
प्रदुषण से मैं
पूर्णतः मुक्त होकर
एक ह्रदय दीप भी
जला लूँ तो
हो जाए
दीवाली .

Thursday, October 28, 2010

अहंता

विद्वेष
वैमनस्य
विवाद
शीतयुद्ध
न संधि न समाप्ति
एक समान योद्धा
मेरी बनायीं हुई दुनिया
एकतरफ ......
और मैं
दूसरी तरफ
क्या मुझे
मरना पड़ेगा
स्वामी - हंता
अहंता से .

स्वीकार

ठहरने को तो
ठहर जाऊं कुछ पल
तुम्हारे पास
पर मैं रुक नहीं सकती
तबतक , जबतक की तुम
रोकना चाहो मुझे
सँवरने को तो
सँवर जाऊं कई -कई बार
तुम्हारे लिए
पर मैं निखर नहीं सकती
वैसे , जैसे की तुम
निखारना चाहो मुझे
प्रिय ! तब आरोपण क्यों
अगर प्रेम है तो
आओ .......
एक -दूसरे को हम
स्वीकार करें
समग्रता से
सहज रूप में .

Wednesday, October 27, 2010

न्याय

मेरे व्यक्तित्व के
विभिन्न पक्षों को
परस्पर
संतुलित करता है
मेरी आत्मा में
निहित न्याय
मेरी आवश्यकताएं
पूरक माध्यम ......
मेरी गतिशीलता
मेरी अकर्मण्यता
मेरी हिम्मत
मेरा साहस .....
मेरी चेतना में
अद्भुत समन्यवय
दुर्लभ सामंजस्य
जो मुझे बोध कराता है
मेरे कर्तव्य का
मेरे अस्तित्व का
फिर मैं
और क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .

अपेक्षा

अपनी दया पर आश्रित मैं
मुझसे कैसी अपेक्षा
सद्गुणों की या
उसकी किसी भी धारणा की
मूल्यों की या
उसकी किसी भी ऊंचाई की
मौलिकता की या
उसकी किसी भी छाया की
सर्वश्रेष्ठता की या
उसके किसी भी दु:स्वप्नों की
मानवता की या
उसकी किसी भी प्रतिबद्धता की
यदि मैं स्वयं से ही
स्वतंत्र हो जाऊं तो
मुझसे की जाने वाली
तमाम अपेक्षाएं
जायज है .

Tuesday, October 26, 2010

उत्तरदायी

मेरी नैतिक शिक्षा
हर अच्छे और बुरे
कार्यो को मेरे
वैयक्तिक पहल व
साहसिकता की भावना से
करने देती है ......
हालाँकि
बहुत बार ऐसा भी
होता है कि स्वयं
मेरा नैतिक अस्तित्व
नष्टप्राय होता है
जिसपर मेरा कोई भी
नियंत्रण नहीं होता है
मैं ही गिरती हूँ
औँधे मुँह
पुनः
मैं ही उठती हूँ
सतत प्रगतिशील मैं
मेरे द्वारा होती है
मेरी ही प्रगति
जिसकी उत्तरदायी
केवल मैं ही होती हूँ .

Monday, October 25, 2010

पश्चाताप

जीवन की असारता
पश्चाताप
जिसे सुनने के लिए
केवल मैं या
एकांत तथा शांत प्रकृति
आँखों को दिखता
क्रूर नृत्य
प्रलय की लहरों का
जो बाहुपाश में मुझे
जकड़ती जा रही है
और मैं हो रही हूँ
विलीन तथा विनष्ट
स्वयं में ही ........
पश्चाताप में
निमग्न होकर भी
कोई शक्ति मुझे
देती है प्रेरणा
आभ्यंतर प्रेरणा
कर्मशील होने की
मैं पुनः
आसक्त होती हूँ
जीवन के प्रति
मुझमें संचार होता है
आशा का
सुनहरे तीर बरसाती
अलौकिक सुबह
मुझे आलोकित करती है
जिसमें दिखता है प्रेम
मेरा प्रेम
मंद-मंद मुस्कुराता हुआ
दूर होकर भी
बहुत पास बहुत पास
मेरे पैर स्वतः
बढ़ चलते हैं
धीरे -धीरे
धीरे -धीरे
उसकी ओर .... .

वरदान

क्यों मैं डालूं तुम्हारे पैरों में
अपनी कल्पनाओं की बेड़ियाँ
क्यों मैं बांध लूँ तुम्हें
अपने इन्द्रधनुषी सपनों में
क्यों मैं घेर लूँ तुम्हें
अपनी बांहों के घेरे में
क्यों मैं बनाऊं तुम्हारे लिए
अपनी सीमाओं का लक्ष्मण रेखा
क्यों मैं खींचती रहूँ तुम्हें
अपने तन मन के आकर्षण में
मेरे लिए तुम्हारा भावस्पर्श ही
अद्भुत वरदान है
जिससे मैं पाषाण से बन गयी
जीती जागती इन्सान
परिपक्व चेतना युक्त
और तुम्हारे असीम सीमा में
हो गयी अवस्थित
साक्षी भाव में तन्मय
तुममे तन्मय .

Friday, October 22, 2010

दीवार

अपने भीतर खड़े
ऊँची - ऊँची दीवारों को
ढहाने के लिए
मैंने बनाया
अपने विचारों का
एक बहुत बड़ा
मजबूत हथौड़ा
जब तब करती रही
प्रहार पर प्रहार
हर प्रहार के बाद
चकनाचूर होकर
गिर जाता मेरा ही
एक व्यर्थ विचार
अब जो शेष है
वो है केवल अनुभवों का
समग्र सार
और मैं निर्विचार
या मैं ही हूँ
कोई सत्य की दीवार .

Wednesday, October 20, 2010

वितंडा

एक कोशिश या
हठधर्मिता
या फिर
बलात सम्प्रेषण
अभिव्यक्ति के अधिकार
के तहत
कविता से संवाद
या फिर
स्वयं के मानसिक
विलासिता के लिए
शब्द निर्मित अत्याधुनिक
भोग विलास के साधन
एक वितंडा
स्वयं में ही
मैं हूँ संसार में
सबसे अमीर .

जतन

मुझमें
तेरा अवतरण
तुझमें
मेरा अवशोषण
हाय ! मुझसे
मेरा ही अवहरण
अब मेरी सांसों में
तेरा ही आवागमन
विरह वेदना में
तेरा अवगाहन
और
मिलन - बेला में
देह को लाँघ
तुम्हे छूने का जतन
क्यों इस पूर्णता में भी
है एक अधूरापन
प्रिय ! यही प्रेम है तो
आओ इसी का
हम लें आलंबन .

Saturday, October 16, 2010

खुली मुट्ठी

चुपके से किसी पल को
मुट्ठी में छुपा लेना
हर पल उस पल को
मुट्ठी खोल देखते रहना
समय ! मैंने तुम्हे मात है दिया
दम है तो मेरी खुली मुट्ठी से
छीन लो उस पल को
जिस पल मैंने स्वयं को
समर्पित किया है
अपने प्रियतम को
और मैं कहीं गुम हूँ
अपने प्रियतम में .

Friday, October 15, 2010

रचना

जब अपना ही मौन
निष्क्रिय कर देता है स्वरतंत्र को
जब अपनी ही सोच
दिखाने लगती है त्रिआयामी चलचित्र
जब अपने ही आँखों में
घूमने लगता है अपना विकृत चेहरा
जब अपनी ही चीख
गूंजने लगती है अपने कानों में
जब अपना ही क्रोध
अंग प्रत्यंग को जलाने लगता है
तब मैं अतिशय कोशिश करती हूँ
सामान्य से सामान्य रहने की
नरम आवरण के अन्दर
बहुत कुछ टूटने लगता है
बार बार होता ये विध्वंस
सृजनात्मक होता तो एक बात होती
पर मेरे विचारों का महल
मलवों में तब्दील होते रहते हैं
मलवे, मलवे ही मलवे
जिसके नीचे दबी मैं
सोच रही हूँ
एक नई सृष्टि की ही
क्यूँ न रचना कर दूँ .

Wednesday, October 13, 2010

विवशता

शब्दों की
व्यग्रता व्याकुलता
अर्थों की सीमा को
तोड़ देने की हठता
स्वयं को इस तरह
व्यक्त करने की अधीरता
हाय ! शब्दों में ही
इतनी अराजकता
प्रिय !
इन बेतरतीब शब्दों से
कुछ अर्थ ग्रहण कर पाओ तो
समझ लेना मेरी विह्व्लता
और शब्दों से
बंघी होने की विवशता
पर प्रिय !
कैसी है ये विषमता
पास जो होते हो तुम तो
शब्दों की क्यों
नहीं होती आवश्यकता
दिखती है क्यों
इतनी निरर्थकता
कुछ कहती है क्यों
उद्वेलित नि : शब्दता
जिसमें हो जाते हैं
दोनों समाहित और
रह जाती है केवल
प्रेम की मधुरता

हो सके तो

हो सके तो बन जाना
तुम मेरे लिए
गर्मी में लू का थपेड़ा
सर्द रातों में
हाड़ को चीड़ती हवा
हो सके तो बन जाना
तुम मेरे लिए
मेरे पैरों के नीचे
दहकता अंगारा
गर्दन पर
लटकती तेज़ तलवार
हो सके तो बन जाना
तुम मेरे लिए
फूटता हुआ ज्वालामुखी
अत्यधिक तीव्रता वाला भूकंप
तब भी मैं अगर
तुमसे करती रहूँ प्यार
तो समझ लेना
प्यार केवल सुखद क्षणों का
साक्षी नहीं होता
बल्कि जीवन संघर्ष में
जीतना भी सिखाता है .

Sunday, October 10, 2010

उलझन

कुछ सवाल  सुलझाते हैं
उलझे अभिवृतियों को
हालाँकि इसका कोई
यथोचित जबाव नहीं होता
फिर भी पतली गली के लिए
बहुधा इसे पीसा जाता है
तर्क-वितर्क के सिलवटटे पर
और इसकी संतति बढती जाती है
कुछ जबाव उलझाते हैं
सुलझे अभिकथनों को
जिसके गर्भ में पनपते रहते हैं
कई कई सवाल और उनकी
कर दी जाती है भ्रूणहत्या
मूक वधिरों की जमात
आजीवन अनुगामी बनकर
नैतिकता व मर्यादा की दासता
स्वेच्छा से स्वीकारते हैं
सवाल और जबाव के बीच
उलझी जिंदगी चलती रहती है
जो जितना उलझे होते हैं
वे स्वयं को हिटलर या सिकंदर
घोषित कर लेते हैं
जो सुलझे होते हैं वे
बुद्ध क्राइस्ट की तरह
मुखरित मौन को धारणकर
युगों युगों के लिए
अपने विचारों को छोड़ जाते हैं .

चाहत

कुछ अलग की चाहत होती तो
बस जाती किसी दूसरे ग्रह पर
जहाँ जीवन असंभव है और
रह लेती हवा पानी भोजन के बिना 
साबित करती अपनी अलग पहचान 
रोज सुबह घंटे भर के लिए 
यहाँ टहलने को आती
दो चार चक्कर लगाकर फिर 
लौट जाती अपने ठिकाने 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
बन जाती दंतकथाओं की पात्र
आवश्यकता और इक्षानुसार 
रूप बदल सबों को करती अचंभित 
या फिर जादू की छड़ी लिए 
करती रहती चमत्कार पर चमत्कार 
क्रीडा कौतुक हेतु अपने श्राप से 
लोगों को बना देती तोता मेमना 
मेरी उँगलियों पर ही नाचते सभी 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
किसी क्लिष्ट या अस्पष्ट लिपि को 
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती
और बन जाती मैं रहस्यमयी 
पर मैं तो वही हूँ जो सबमें है 
वही  कहती हूँ जो सबका ह्रदय कहता है 
हाँ  मैं एक पुकार हूँ चेतना की 
अस्तित्व की आवाज हूँ मैं 
मैं गूंजती रहूंगी सभ्यता के बाद भी .

Friday, September 3, 2010

कितना सुकून देता है

कभी कभी
स्वयं  की बनायी
स्वयं  के लिए  ही
स्वप्नसृष्टि   को
स्वयं की स्वतंत्रता  के लिए
आत्मघाती  हमला कर
चिथड़ा  चिथड़ा  कर देना
कितना सुकून  देता है
यह  स्वतंत्रता
बाहरी दुनिया  से
अपनी  दुनिया  से  भी
स्वतंत्र  दुनिया
उन चिथड़ों  से  कभी
हवाई  जहाज  बनाकर
हवा  में  उछालना
कभी  नाव बनाकर
पानी  में चलाना
कितना सुकून  देता  है
मन पे  पोती गयी
खुशियों  के  झूठे 
इन्द्रधनुषी  रंगों  को
उन्हीं  चिथड़ों  से
रगड़कर  छुड़ाना
बदरंग  खुशियों  का
स्वयं  पर ही
कुटिल  मुस्कान  फेंकना
कितना  सुकून  देता है
दोनों  भवें  उछाल उछाल  कर
स्वयं  का  ही  हाल चाल लेना
या फिर  ये जताना  कि
सुख  दुःख  से परे  भी
होती है कोई  ख़ुशी
जो स्वयं  से भी
स्वतंत्र  होकर 
सुकून  देता  है
हाँ
कितना  सुकून  देता है .

Wednesday, September 1, 2010

समय जो दिखता तो

समय जो दिखता तो
मैं भी देख पाती समयांतर.....
संभवतः आदम के साथ सेव खाते हुए
या फिर प्रलय प्रवाह में बहती होती
छोटी सी डोंगी में मनु के साथ
एक और सृष्टि सृजन  के लिए......
समय जो दिखता तो
मैं हो जाती समकेंद्रिक
समयनिष्ठ हो करती नाभिकीय विखंडन
सूरज की तरह देती अनवरत उष्मा
समय सारिणी को परे हटाकर
एक सुन्दर जीवन जीते सभी........
समय जो दिखता  तो
मैं बन जाती समदर्शी
देख पाती गेंहूँ गुलाब की उदारता
सभी पेट भरे होते सभी ह्रदय खिले होते
और गलबहियां डाले दोनों गाते
सबों के लिए समानता का गीत .............
समय जो दिखता तो
मैं भी हो जाती समसामयिक
कल की रस्सी पकड़ कल पर कूदने वालों को
खीँच लेती आज में अपनी समस्त उर्जा से
जिससे हो जाता सामूहिक समुदय.........
समय जो दिखता तो
मैं ही समय हो जाती .

Sunday, August 29, 2010

उधार

कहो तो कुछ शब्द
मैं तुम्हें उधार दूँ
जिससे तुम प्रेम को
अभिव्यक्त कर सको
जब तुम प्रेम में होते हो
आँखों से कुछ बहता है
तुम तरंगित हो उठते
थरथराते हाथों से तुम मुझे
समेट लेना चाहते  हो
कंपकंपाती  देह  मेरे अस्तित्व  में
मिल जाना चाहती है
तुम केवल  इतना चाहते हो
कि यह पल थम सा जाये
मैं साक्षी  बन जाऊं
तुम्हारे  इस प्रेम का
कहो  तो कुछ ही शब्द
मैं तुम्हे  उधार  में दूँ
जिससे तुम  कुछ  कह सको
जो गूंजता  रहे अनवरत
मेरे ब्रम्हांड  में
ओओम् की  तरह .

गीली मिटटी

तुम  मूर्तिकार
गीली मिट्टी मैं
अपनी अतृप्त
इक्षाओं के ढांचें पर
लगाकर मुझे
बनाते हो
खुबसूरत मूर्ति
सपना कल्पना व
वासनाओं से
सजाते हो मुझे
सम्पूर्ण कुशलता का
उपयोग कर
स्वांग रचते हो
मुझमें प्राण भरने का
मैं जानती हूँ
मेरी पूजा भी करोगे
सबके साथ तुम
उत्सव भी मनाओगे
फिर मैं विसर्जित
कर दी जाऊँगी किसी
गन्दी नाली नदियों में
मैं मृणमूर्ति पुनः
मृणमय हो जाऊँगी
और तुम्हारे हाथ
फिर गीली मिट्टी ही
रह जायेगा .

Wednesday, June 30, 2010

मसालेदार लजीज कविता .......

कुछ अति साधारण से
लोकल चलताऊ शब्दों में
दो - चार नहीं
पाँच - दस अर्थों को भर कर
मेकओवर , कॉस्टमेटिक सर्जरी करवाकर    
किसी बड़े  फैशन डिजायनर के
लेटेस्ट मॉडल का ड्रेस पहनाकर
आज की मेनकाओं की तरह
नग्नता के ठुमके लगवाकर
अवार्ड विनिंग संगीतकार के
चोरी किये गए धुन पर
कुछ बे- ताल से ताल मिलाकर
किसी बड़े ओपन स्टेडियम में 
सेलेब्रेटियों के बीच  नचवाकर
कविता तो बनाई जा सकती  है 
मसालेदार  लजीज  कविता 
देखने  सुनने  वालों  के मुँह में 
कोल्ड ड्रिंक्स  वाली लार भर 
बूंद - बूंद से  प्यास  मिटा  सकती  है 
साहित्य  अकादमी  वाले  
सभ्यता  संस्कृति  के नाम पर 
शर्म की  झीनी  चदरिया  ओढ़  भी  ले
पर  ग्लोबलाइज्ड   पुरस्कारों  को
महान  कवियों  के  लाल  में भी  दम  नहीं
कि  कीर्तिमान  बनाने  से  रोक  ले

संभावनाओं के बीज

अपने  ह्रदय के उपजाऊ भूमि पर

मैं करती रहती हूँ

असीम संभावनाओं की खेती

हर बेहतर आज और कल के लिए

उम्मीदों से करती हूँ जुताई

बुद्ध , गाँधी से लेती हूँ बीज 

शांति , प्यार का करती हूँ बुवाई 

आशाओं का बनाती हूँ मेढ़

कल्पनाओं से देती हूँ उष्णता 

अनंत इच्छाएं बन बरसती हूँ 

करुणा से उसे सींचती हूँ 

आशंका , दु:स्वप्न , अनहोनी ......का 

करती रहती हूँ निराई-गुराई 

लहलहाती झूमती -गाती फसलों को 

देख खुश होती रहती हूँ 

कि कहीं पेट की आग से बचने को 

कई जिंदगियां कर लेते हैं 

स्वयं ही सामूहिक अंत 

होने लगती है ऑनर किलिंग 

कोई लिख जाता है..' आई  क्वीट '

कहीं मनाई जाती है दीवालियाँ

तो कहीं खेली जाती है खून से होलियाँ 

अतिवृष्टि , अनावृष्टि कर देते हैं 

मेरे फसलों को बर्बाद ....

एकबारगी मेरा ह्रदय हो जाता है बंजर 

और मैं फिर से जुट जाती हूँ 

संभावनाओं के बीज की खोज में   . 

Monday, June 28, 2010

अनुभूति

विश्वास की लाल कालीन पर

निराशाओं के बिखेरे फूलों पर

आशाओं को आँखों में भरे हुए

चलते जाना नियति है या मज़बूरी

कि एक दिन मानवता की

खुबसूरत कल्पनाएँ सच हो जाएँगी

जिस प्यार दोस्ती की बातें

अमन चैन की बातें

शांति सुकून की बातें

हरियाली खुशहाली की बातें

समानता स्वतंत्रता की बातें

वाद -विवाद करने योग्य

मुद्दा नहीं रह जायेंगे

इन मुद्दों का हो जायेगा

उन्नमूलन इनके जड़ों से

फिर तो हमारी कल्पनाएँ

केवल एक ही रहेंगी

कि धरती की इस सुन्दरता को

और कैसे निखारा जाये

और हमारे पास केवल

एक ही भाव बचेंगे

अनुभूति केवल आनंद की

अनुभूति.... अनुभूति

और धरती सही मायने में

स्वर्ग हो जाएगी .

Thursday, April 8, 2010

कोई फर्क नहीं पड़ता

कोई फर्क नहीं पड़ता
कि हम कहाँ हैं
हो सकता है हम
आँकड़े इक्कठा करने वाले
तथाकथित मापदंड पर
ठोक-पीट कर
निष्कर्ष जारी करने वाले
बुद्धिजीवियों के
सरसरी नज़रों से होकर
गुजर सकते हैं
हो सकता है कुछ क्षण के लिए
उनकी संवेदना  तीक्ष्ण जो जाये
ये भी हो सकता है कि
उससे संबंधित कुछ नए विचार
कौंध उठे उनके दिमाग में
समाधान या उसके समतुल्य
ये भी हो सकता है कि
बहुतों का कलम उठ जाये
पक्ष -विपक्ष में लिखने को
अपनी कीमती राय
कर्ण की भांति दान देते हुए
पर जिसका चक्रव्यूह
उसमें फंसा अभिमन्यु वो ही
महारथियों से घिरा
अपना अस्तित्व बचाने को
पल प्रतिपल संघर्षरत
आखिरी साँस टूटते हुए उसे
दिख जाता है
विजय कलयुग का .

मुझे पता है

बेहद सर्द रातें

बर्फीली हवाएं

घने कोहरे को ओढ़े

गहरे पानी में

निर्वस्त्र खरी मैं

छ : महीने की भी

जो होतीं रातें तो

अगले छ : महीने तक

रहता मेरा सूरज

न जाने किस ग्रह पर

बसेरा है मेरा

जहाँ सदियों से केवल

रातें ही हैं

रातें और गहरी रातें

और मैं जिन्दा भी हूँ

मेरे सूरज तुम्हे मैं

उगाये रहती हूँ हरसमय

अपने ह्रदय में

मुझे पता है

तेरी उष्णता मेरे खून को

कभी बर्फ बनने नहीं देगी .





Wednesday, April 7, 2010

तुमने कहा

तुमने कहा -
जिस आवृति से
विभिन्न तरंगदैर्ध पर
उठता गिरता है
तुम्हारा विचार
जिससे आवेशित होती हो
कम्पित होती हो
यथावत ईमानदारी से
रख दो उन विचारों को
कविता का सृजन होगा
पर क्यूँ दिखता है
सबकुछ धुंँधला धुंँधला
मेरे विचार ओढ़े हैं
मेरी कड़वाहट को
या मेरी आँखों पर
है काली पट्टी
या आईना पर
चढ़ गया है कल दोतरफा
कैसे दिखेगी कविता
अपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
निश्छल निष्कलंक .